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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 66
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    त्वम॑ग्नऽईडि॒तः क॑व्यवाह॒नावा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ तेऽअ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वीषि॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ग्ने॒। ई॒डि॒तः। क॒व्य॒वा॒ह॒नेति॑ कव्यऽवाहन। अवा॑ट्। ह॒व्यानि॑। सु॒र॒भीणि॑। कृ॒त्वी। प्र। अ॒दाः॒। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। स्व॒धया॑। ते। अ॒क्ष॒न्। अ॒द्धि। त्वम्। दे॒व॒। प्रय॒तेति॒ प्रऽय॑ता। ह॒वीषि॑ ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्नऽईडितः कव्यवाहनावाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी । प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वन्देव प्रयता हवीँषि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। ईडितः। कव्यवाहनेति कव्यऽवाहन। अवाट्। हव्यानि। सुरभीणि। कृत्वी। प्र। अदाः। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः। स्वधया। ते। अक्षन्। अद्धि। त्वम्। देव। प्रयतेति प्रऽयता। हवीषि॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 66
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    पदार्थ -
    हे (कव्यवाहन) कवियों के प्रगल्भतादि कर्मों को प्राप्त हुए (अग्ने) अग्नि के समान पवित्र विद्वन्! पुत्र! (ईडितः) प्रशंसित (त्वम्) तू (सुरभीणि) सुगन्धादि युक्त (हव्यानि) खाने के योग्य पदार्थ (कृत्वी) कर के (अवाट्) प्राप्त करता है, उनको (पितृभ्यः) पितरों के लिये (प्रादाः) दिया कर। (ते) वे पितर लोग (स्वधया) अन्नादि के साथ इन पदार्थों का (अक्षन्) भोग किया करें। हे (देव) विद्वन दातः! (त्वम्) तू (प्रयता) प्रयत्न से साधे हुए (हवींषि) खाने के योग्य अन्नों को (अद्धि) भोजन किया कर॥६६॥

    भावार्थ - पुत्रादि सब लोग अच्छे संस्कार किये हुए सुगन्धादि से युक्त अन्न-पानों से पितरों को भोजन कराके आप भी इन अन्नों का भोजन करें, यही पुत्रों की योग्यता है। जो अच्छे संस्कार किये हुए अन्न-पानों को करते हैं, वे रोगरहित होकर शतवर्ष पर्यन्त जीते हैं॥६६॥

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