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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 41
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः
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    यत्ते॑ प॒वित्र॑म॒र्चिष्यग्ने॒ वित॑तमन्त॒रा। ब्रह्म॒ तेन॑ पुनातु मा॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ते॒। प॒वित्र॑म्। अ॒र्चिषि॑। अग्ने॑। वित॑त॒मिति॒ विऽतत॑म्। अ॒न्त॒रा। ब्रह्म॑। तेन॑। पु॒ना॒तु॒। मा॒ ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा । ब्रह्म तेन पुनातु मा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। पवित्रम्। अर्चिषि। अग्ने। विततमिति विऽततम्। अन्तरा। ब्रह्म। तेन। पुनातु। मा॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 41
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (ते) तेरे (अर्चिषि) सत्कार करने योग्य शुद्ध तेजःस्वरूप में (अन्तरा) सब से भिन्न (यत्) जो (विततम्) विस्तृत सब में व्याप्त (पवित्रम्) शुद्धस्वरूप (ब्रह्म) उत्तम वेद विद्या है, (तेन) उससे (मा) मुझ को आप (पुनातु) पवित्र कीजिये॥४१॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोग जो देवों का देव, पवित्रों का पवित्र, व्याप्तों में व्याप्त अन्तर्यामी ईश्वर और उसकी विद्या वेद है, उसके अनुकूल आचरण से निरन्तर पवित्र हूजिये॥४१॥

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