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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 6
    ऋषिः - आभूतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराट् प्रकृतिः स्वरः - धैवतः
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    कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ऽ उक्तिं॒ यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्ण॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒स्तेज॑से त्वा वी॒र्याय त्वा॒ बला॑य त्वा॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त॒ इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपू॒र्वम्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॒ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भोज॑नानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। तेज॑से। त्वा॒। वी॒र्या᳖य। त्वा॒। बला॑य। त्वा॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविदङ्ग यवमन्तो वयञ्चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वँवियूय । इहेहैषाङ्कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमउक्तिँयजन्ति । उपयामगृहीतो स्यश्विभ्यान्त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णेऽएष ते योनिस्तेजसे त्वा वीर्याय त्वा बलाय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित्। अङ्ग। यवमन्त इति यवऽमन्तः। यवम्। चित्। यथा। दान्ति। अनुपूर्वमित्यनुऽपूर्वम्। वियूयेति विऽयूय। इहेहेतीहऽइह। एषाम्। कृणुहि। भोजनानि। ये। बर्हिषः। नमउक्तिमिति नमःऽउक्तिम्। यजन्ति। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। एषः। ते। योनिः। तेजसे। त्वा। वीर्याय। त्वा। बलाय। त्वा॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 6
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    पदार्थ -
    हे (अङ्ग) मित्र! (ये) जो (बर्हिषः) अन्नादि की प्राप्ति कराने वाले (यवमन्तः) यवादि धान्ययुक्त किसान लोग (नमउक्तिम्) अन्नादि की वृद्धि के लिये उपदेश (यजन्ति) देते हैं, (एषाम्) उनके पदार्थों का (इहेह) इस संसार और इस व्यवहार में तू (भोजनानि) पालन वा भोजन आदि (कृणुहि) किया कर, (यथा) जैसे ये किसान लोग (यवम्) यव को (चित्) भी (वियूय) वुषादि से पृथक् कर (अनुपूर्वम्) पूर्वापर की योग्यता से (दान्ति) काटते हैं, वैसे तू इनके विभाग से (कुवित्) बड़ा बल प्राप्त कर, जिस (ते) तेरी उन्नति का (एषः) यह (योनिः) कारण है, उस (त्वा) तुझको (अश्विभ्याम्) प्रकाश-भूमि की विद्या के लिये (त्वा) तुझको (सरस्वत्यै) कृषिकर्म प्रचार करनेहारी उत्तम वाणी के लिये (त्वा) तुझको (इन्द्राय) शत्रुओं के नाश करने वाले (सुत्राम्णे) अच्छे रक्षक के लिये (त्वा) तुझ को (तेजसे) प्रगल्भता के लिये (त्वा) तुझ को (वीर्याय) पराक्रम के लिये (त्वा) तुझ को (बलाय) बल के लिये जो प्रसन्न करते हैं वा जिससे तू (उपयामगृहीतः) श्रेष्ठ व्यवहारों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, उनके साथ तू विहार कर॥६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजपुरुष कृषि आदि कर्म करने, राज्य में कर देने और परिश्रम करने वाले मनुष्यों को प्रीति से रखते और सत्य उपदेश करते हैं, वे इस संसार में सौभाग्य वाले होते हैं॥६॥

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