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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 60
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    येऽअ॑ग्निष्वा॒त्ता येऽअन॑ग्निष्वात्ता॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते। तेभ्यः॑ स्व॒राडसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं कल्पयाति॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताः। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ता इत्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताः। ये। अन॑ग्निष्वात्ताः। अन॑ग्निष्वात्ता॒ इत्यन॑ग्निऽस्वात्ताः। मध्ये॑। दि॒वः। स्व॒धया॑। मा॒दय॑न्ते। तेभ्यः॑। स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। असु॑नीति॒मित्यसु॑ऽनीतिम्। ए॒ताम्। य॒था॒व॒शमिति॑ यथाऽव॒शम्। त॒न्व᳖म्। क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येऽअग्निष्वात्ता येऽअनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेताँयथावशन्तन्वङ्कल्पयाति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। अग्निष्वात्ताः। अग्निष्वात्ता इत्यग्निऽस्वात्ताः। ये। अनग्निष्वात्ताः। अनग्निष्वात्ता इत्यनग्निऽस्वात्ताः। मध्ये। दिवः। स्वधया। मादयन्ते। तेभ्यः। स्वराडिति स्वऽराट्। असुनीतिमित्यसुऽनीतिम्। एताम्। यथावशमिति यथाऽवशम्। तन्वम्। कल्पयाति॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 60
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    पदार्थ -
    (ये) जो (अग्निष्वात्ताः) अच्छे प्रकार अग्निविद्या के ग्रहण करने तथा (ये) जो (अनग्निष्वात्ताः) अग्नि से भिन्न अन्य पदार्थविद्याओं को जाननेहारे वा ज्ञानी पितृलोग वा (दिवः) विज्ञानादि प्रकाश के (मध्ये) बीच (स्वधया) अपने पदार्थ के धारण करने रूप क्रिया से (मादयन्ते) आनन्द को प्राप्त होते हैं, (तेभ्यः) उन पितरों के लिये (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान परमात्मा (एताम्) इस (असुनीतिम्) प्राणों को प्राप्त होने वाले (तन्वम्) शरीर को (यथावशम्) कामना के अनुकूल (कल्पयाति) समर्थ करे॥६०॥

    भावार्थ - मनुष्यों को परमेश्वर से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमेश्वर! जो अग्नि आदि की पदार्थविद्या को यथार्थ जान के प्रवृत्त करते और जो ज्ञान में तत्पर विद्वान् अपने ही पदार्थ के भोग से सन्तुष्ट रहते हैं, उनके शरीरों को दीर्घायु कीजिये॥६०॥

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