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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - प्राजापत्या अनुष्टुप्,भूरिक् प्राजापत्या बृहती, स्वरः - ऋषभः
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    रेव॑ती॒ रम॑ध्वं॒ बृह॑स्पते धा॒रया॒ वसू॑नि। ऋ॒तस्य॑ त्वा देवहविः॒ पाशे॑न प्रति॑मुञ्चामि॒ धर्षा॒ मानु॑षः॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रेव॑तीः। रम॑ध्वम्। बृह॑स्पते। धा॒रय॑। वसू॑नि। ऋ॒तस्य॑। त्वा॒। दे॒व॒ह॒वि॒रिति॑ देवऽहविः। पाशे॑न। प्रति॑। मु॒ञ्चा॒मि॒। धर्ष॑। मानु॑षः ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेवती रमध्वं बृहस्पते धारया वसूनि । ऋतस्य त्वा देवहविः पाशेन प्रति मुञ्चामि धर्षा मानुषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रेवतीः। रमध्वम्। बृहस्पते। धारय। वसूनि। ऋतस्य। त्वा। देवहविरिति देवऽहविः। पाशेन। प्रति। मुञ्चामि। धर्ष। मानुषः॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 8
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    पदार्थ -
    हे (रेवतीः) अच्छे धन वाले सन्तानो! तुम विद्या और अच्छी शिक्षा में (रमध्वम्) रमो। हे (बृहस्पते) वेदवाणी पालने वाले विद्वन्! आप (ऋतस्य) सत्य न्याय व्यवहार से प्राप्त (वसूनि) धन अर्थात् हम लोगों के दिये द्रव्य आदि पदार्थों को (धारय) स्वीकार कीजिये। (अब अध्यापक का उपदेश शिष्य के लिये है) हे राजन् प्रजापुरुष वा! (मानुषः) सर्वशास्त्र का विचार करने वाला मैं (पाशेन) अविद्या बन्धन से तुझे (प्रति मुञ्चामि) छुटाता हूं, तू विद्या और अच्छी शिक्षाओं में धृष्ट हो॥८॥

    भावार्थ - विद्वानों को अपनी शिक्षा से कुमार ब्रह्मचारी और कुमारी ब्रह्मचारिणियों को परमेश्वर से ले के पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों का बोध कराना चाहिये कि जिससे वे मूर्खपनरूपी बन्धन को छोड़ के सदा सुखी हों॥८॥

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