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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 25
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - आर्षी विराट अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    हृ॒दे त्वा॒ मन॑से त्वा॒ दि॒वे त्वा॒ सूर्या॑य त्वा। ऊ॒र्ध्वमि॒मम॑ध्व॒रं दि॒वि दे॒वेषु॒ होत्रा॑ यच्छ॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हृ॒दे। त्वा॒। मन॑से। त्वा॒। दि॒वे। त्वा॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। ऊ॒र्ध्वम्। इ॒मम्। अ॒ध्व॒रम्। दि॒वि। दे॒वेषु॑। होत्राः॑। य॒च्छ॒ ॥२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हृदे त्वा मनसे त्वा दिवे त्वा सूर्याय त्वा । ऊर्ध्वमिममध्वरन्दिवि देवेषु होत्रा यच्छ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हृदे। त्वा। मनसे। त्वा। दिवे। त्वा। सूर्य्याय। त्वा। ऊर्ध्वम्। इमम्। अध्वरम्। दिवि। देवेषु। होत्राः। यच्छ॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 25
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    पदार्थ -
    हे ब्रह्मचारिणी कन्या! तू जैसे हम सब (देवेषु) अपने सुख देने वाले पतियों के निकट रहने और (होत्राः) अग्निहोत्र आदि कर्म का अनुष्ठान करने वाली हैं, वैसी हो और जैसे हम (हृदे) सौहार्द्द सुख के लिये (त्वा) तुझे वा (मनसे) भला-बुरा विचारने के लिये (त्वा) तुझे वा (दिवे) सब सुखों के प्रकाश करने के लिये (त्वा) तुझे वा (सूर्य्याय) सूर्य्य के सदृश गुणों के लिये (त्वा) तुझे शिक्षा करती हैं, वैसे तू भी (दिवि) समस्त सुखों के प्रकाश करने के निमित्त (इमम्) इस (अध्वरम्) निरन्तर सुख देने वाले गृहाश्रमरूपी यज्ञ को (ऊर्ध्वम्) उन्नति (यच्छ) दिया कर॥२५॥

    भावार्थ - जैसे अपने पतियों की सेवा करती हुई उनके समीप रहने वाली पतिव्रता गुरुपत्नियां अग्निहोत्रादि कर्मों में स्थिर बुद्धि रखती हैं, वैसे विवाह के अनन्तर ब्रह्मचारिणी कन्याओं और ब्रह्मचारियों को परस्पर वर्तना चाहिये॥२५॥

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