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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 18
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - प्राजापत्या अनुष्टुप्,आर्ची पङ्क्ति,दैवी पङ्क्ति, स्वरः - गान्धारः, पञ्चमः
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    सं ते॒ मनो॒ मन॑सा॒ सं प्रा॒णः प्रा॒णेन॑ गच्छताम्। रेड॑स्य॒ग्निष्ट्वा॑ श्रीणा॒त्वाप॑स्त्वा॒ सम॑रिण॒न् वात॑स्य त्वा ध्राज्यै॑ पू॒ष्णो रꣳह्या॑ऽऊ॒ष्मणो॑ व्यथिष॒त् प्रयु॑तं॒ द्वेषः॑॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। ते। मनः॑। मन॑सा। सम्। प्रा॒णः। प्रा॒णेन॑। ग॒च्छ॒ता॒म्। रे॒ट्। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। त्वा॒। श्री॒णा॒तु॒। आपः॑। त्वा॒। सम्। अ॒रि॒ण॒न्। वातस्य। त्वा॒। ध्राज्यै॑। पू॒ष्णः। रह्यै॑। ऊ॒ष्मणः॑। व्य॒थि॒ष॒त्। प्रयु॑त॒मिति॒ प्रऽयु॑त॒म्। द्वेषः॑ ॥१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सन्ते मनो मनसा सम्प्राणः प्राणेन गच्छताम् । रेडस्यग्निष्ट्वा श्रीणात्वापस्त्वा समरिणन्वातस्य त्वा ध्राज्यै पूष्णो रँह्या ऊष्मणो व्यथिषत्प्रयुतं द्वेषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। ते। मनः। मनसा। सम्। प्राणः। प्राणेन। गच्छताम्। रेट्। असि। अग्निः। त्वा। श्रीणातु। आपः। त्वा। सम्। अरिणन्। वातस्य। त्वा। ध्राज्यै। पूष्णः। रह्यै। ऊष्मणः। व्यथिषत्। प्रयुतमिति प्रऽयुतम्। द्वेषः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    हे युद्धशील शूरवीर! संग्राम में (ते) तेरा (मनः) मन (मनसा) विद्याबल और (प्राणः) प्राण (प्राणेन) प्राण के साथ (सम्) (गच्छताम्) संगत हो। हे वीर! तू (रेट्) शत्रुओं को मारने वाला (असि) है, (त्वा) तुझे (अग्निः) युद्ध से उत्पन्न हुए क्रोध का अग्नि (श्रीणातु) अच्छे पचावे तू (प्रयुतम्) करोड़ों प्रकार के शत्रुओं की सेना को प्राप्त होता है, तुझ को तज्जन्य (ऊष्मणः) गरमी का (द्वेषः) द्वेष मत (व्यथिषत्) अत्यन्त पीड़ायुक्त करे, जिससे (वातस्य) पवन की (ध्राज्यै) गति के तुल्य गति के लिये वा (पूष्णः) पुष्टिकारक सूर्य के (रंह्यै) वेग के तुल्य वेग के लिये अर्थात् यथार्थता से युद्ध करने में प्रवृत्ति होने के लिये (आपः) अच्छे-अच्छे जल (सम्) (अरिणन्) अच्छे प्रकार प्राप्त हों॥१८॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि अपने बल के बढ़ाने वाले अन्न, जल और शस्त्र-अस्त्र आदि पदार्थों को इकट्ठा करके शत्रुओं को मार कर संग्राम जीतें॥१८॥

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