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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - भूरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्,साम्नी उष्णिक्, स्वरः - गान्धारः
    11

    माहि॑र्भू॒र्मा पृदा॑कु॒र्नम॑स्तऽआतानान॒र्वा प्रेहि॑। घृ॒तस्य॑ कु॒ल्याऽउप॑ऽऋ॒तस्य॒ पथ्या॒ऽअनु॑॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। अहिः॑। भूः॒। मा। पृदा॑कुः। नमः॑। ते॒। आ॒ता॒नेतेत्या॑ऽतान। अ॒न॒र्वा। प्र। इ॒हि॒। घृ॒तस्य॑। कु॒ल्याः। उप॑। ऋ॒तस्य॑। पथ्याः॑। अनु॑ ॥१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    माहिर्भूर्मा पृदाकुर्नमस्तऽआतानानर्वा प्रेहि । घृतस्य कुल्याऽउप ऋतस्य पथ्याऽअनु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। अहिः। भूः। मा। पृदाकुः। नमः। ते। आतानेतेत्याऽतान। अनर्वा। प्र। इहि। घृतस्य। कुल्याः। उप। ऋतस्य। पथ्याः। अनु॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    हे (आतान) अच्छे प्रकार सुख से विस्तार करने वाले विद्वान्! तू (मा) मत (अहिः) सर्प के समान कुटिलमार्गगामी और (मा) मत (पृदाकुः) मूर्खजन के समान अभिमानी वा व्याघ्र के समान हिंसा करने वाला (भूः) हो (ते) सब जगह तेरे सुख के लिये (नमः) अन्न आदि पदार्थ पहले ही प्रवृत्त हो रहे हैं और (अनर्वा) अश्व आदि सवारी के विना निराश्रय पुरुष जैसे (घृतस्य) जल की (कुल्याः) बड़ी धारओं को प्राप्त हो, वैसे (ऋतस्य) सत्य के (पथ्याः) मार्गों को प्राप्त हो॥१२॥

    भावार्थ - किसी मनुष्य को कुटिलगामी सर्प आदि दुष्ट जीवों के समान धर्ममार्ग में कुटिल न होना चाहिये, किन्तु सर्वदा सरल भाव से ही रहना चाहिये॥१२॥

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