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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - त्वष्टा देवता छन्दः - निचृत् आर्षी बृहती, स्वरः - मध्यमः
    7

    उ॒पा॒वीर॒स्युप॑ दे॒वान् दैवी॒र्विशः॒ प्रागु॑रु॒शिजो॒ वह्नि॑तमान्। देव॑ त्वष्ट॒र्वसु॑ रम ह॒व्या ते॑ स्वदन्ताम्॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒पा॒वीरित्यु॑पऽअ॒वीः। अ॒सि॒। उप॑। दे॒वान्। दैवीः॑। विशः॑। प्र। अ॒गुः॒। उ॒शिजः॑। वह्नि॑तमा॒निति॒ वह्नि॑ऽतमान्। देव॑। त्व॒ष्टः॒। वसु॑। र॒म॒। ह॒व्या। ते॒। स्व॒द॒न्ता॒म् ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपावीरस्युप देवान्दैवीर्विशः प्रागुरुशिजो वह्नितमान् । देव त्वष्टर्वसु रम हव्या ते स्वदन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपावीरित्युपऽअवीः। असि। उप। देवान्। दैवीः। विशः। प्र। अगुः। उशिजः। वह्नितमानिति वह्निऽतमान्। देव। त्वष्टः। वसु। रम। हव्या। ते। स्वदन्ताम॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न! (त्वष्टः) सब दुःख के छेदन करने वाले सभाध्यक्ष! जिससे तू (उपावीः) शरणागत पालक सदृश (असि) है, इसी से (दैवीः) विद्वानों से सम्बन्ध रखने वाली दिव्यगुण सम्पन्न (विशः) प्रजा जैसे (उशिजः) श्रेष्ठ गुण शोभित कामना के योग्य (वह्नितमान्) अतिशय धर्म मार्ग में चलने और चलाने वाले (देवान्) विद्वानों को (उपप्रागुः) प्राप्त हुए वैसे तुझे भी प्राप्त होते हैं, जैसे तेरे आश्रय से प्रजा धनाढ्य होके सुखी हो, वैसे तू भी प्राप्त हुए प्रजाजनों से सत्कृत होकर (रम) हर्षित हो, जैसे तू प्रजा के पदार्थों को भोगता है, वैसे प्रजा भी तेरे (हव्या) भोगने योग्य अमूल्य (वसु) धनादि पदार्थों को (स्वदन्ताम्) भोगें॥७॥

    भावार्थ - जैसे गुण के ग्रहण करने वाले उत्तम गुणवान् विद्वान् का सेवन करते हैं, वैसे न्याय करने में चतुर राजा का सेवन प्रजाजन करते हैं, इसी से परस्पर की प्रीति से सब की उन्नति होती है॥७॥

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