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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - सविता आश्विनौ पूषा च देवताः छन्दः - प्राजापत्या बृहती,निचृत् अति जगती स्वरः - धैवतः
    7

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॒ नियु॑नज्मि। अ॒द्भयस्त्वौष॑धी॒भ्योऽनु॑ त्वा मा॒ता म॑न्यता॒मनु॑ पि॒तानु॒ भ्राता॒ सग॒र्भ्योऽनु॒ सखा॒ सयू॑थ्यः। अ॒ग्नीषोमा॑भ्यां त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑ त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। नि। यु॒न॒ज्मि॒। अ॒द्भ्य इत्य॒द्ऽभ्यः। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। अनु॑। त्वा॒। मा॒ता। म॒न्य॒ता॒म्। अनु॑। पि॒ता। अनु॑। भ्राता॑। सगर्भ्य॒ इति॑ सऽगर्भ्यः। अनु॑। सखा॑। सयू॑थ्य इति॑ सऽयू॑थ्यः। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । अग्नीषोमाभ्याञ्जुष्टन्नि युनज्मि । अद्भ्यस्त्वौषधीभ्योऽनु त्वा माता मन्यतामनु पितानु भ्राता सगर्भ्यानु सखा सयूथ्यः । अग्नीषोमाभ्यान्त्वा जुष्टंम्प्रोक्षामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। अग्नीषोमाभ्याम्। जुष्टम्। नि। युनज्मि। अद्भय इत्यद्ऽभ्यः। त्वा। ओषधीभ्यः। अनु। त्वा। माता। मन्यताम्। अनु। पिता। अनु। भ्राता। सगर्भ्य इति सऽगर्भ्यः। अनु। सखा। सयूथ्य इति सऽयूथ्यः। अग्नीषोमाभ्याम्। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -
    हे शिष्य! मैं (सवितुः) समस्त ऐश्वर्ययुक्त (देवस्य) वेदविद्या प्रकाश करने वाले परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस जगत् में (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) गुणों से वा (पूष्णः) पृथिवी के (हस्ताभ्याम्) हाथों के समान धारण और आकर्षण गुणों से (त्वा) तुझे (आददे) स्वीकार करता हूं तथा (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम के तेज और शान्ति गुणों से (जुष्टम्) प्रीति करते हुए (त्वा) तुझ को जो ब्रह्मचर्य्य धर्म के अनुकूल जल और ओषधि हैं, उन (अद्भ्यः) जल और (ओषधीभ्यः) गोधूम आदि अन्नादि पदार्थों से (नियुनज्मि) नियुक्त करता हूं, तुझे मेरे समीप रहने के लिये तेरी (माता) जननी (अनु) (मन्यताम्) अनुमोदित करे (पिता) पिता (अनु) अनुमोदित करे (सगर्भ्यः) सहोदर (भ्राता) भाई (अनु) अनुमोदित करे (सखा) मित्र (अनु) अनुमोदित करे और (सयूथ्यः) तेरे सहवासी (अनु) अनुमोदित करें (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम के तेज और शान्ति गुणों में (जुष्टम्) प्रीति करते हुए (त्वा) तुझ को (प्र उक्षामि) उन्हीं गुणों से ब्रह्मचर्य्य के नियम पालने के लिये अभिषिक्त करता हूं॥९॥

    भावार्थ - इस संसार में माता-पिता, बन्धुवर्ग और मित्रवर्गों को चाहिये कि अपने सन्तान आदि को अच्छी शिक्षा देकर ब्रह्मचर्य करावें, जिससे वे गुणवान् हों॥९॥

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