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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - स्वराट् धृति, स्वरः - पञ्चमः
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    मन॑स्त॒ऽआप्या॑यतां॒ वाक् त॒ऽआप्या॑यतां प्रा॒णस्त॒ऽआप्या॑यतां॒ चक्षु॑स्त॒ऽआप्या॑यता॒ श्रोत्रं॑ त॒ऽआप्या॑यताम्। यत्ते॑ क्रू॒रं यदास्थि॑तं॒ तत्त॒ऽआप्या॑यतां॒ निष्ट्या॑यतां॒ तत्ते॑ शुध्यतु॒ शमहो॑भ्यः। ओष॑धे॒ त्राय॑स्व॒ स्वधि॑ते॒ मैन॑ꣳ हिꣳसीः॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मनः॑। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। वाक्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। प्रा॒णः। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। चक्षुः॑। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। यत्। ते॒। क्रू॒रम्। यत्। आस्थि॑त॒मित्याऽस्थि॑तम्। तत्। ते॒। आ। प्या॒य॒ता॒म्। निः। स्त्या॒य॒ता॒म्। तत्। ते॒। शु॒ध्य॒तु। शम्। अहो॑भ्य॒ इत्यहः॑ऽभ्यः। ओष॑धे। त्राय॑स्व। स्वधि॑त॒ इति॒ स्वऽधि॑ते। मा। ए॒न॒म्। हि॒ꣳसीः॒ ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनस्तऽआप्यायताँवाक्त आप्यायताम्प्राणस्त आप्यायताञ्चक्षुस्त आप्यायताँश्रोत्रन्त आ प्यायताम् । यत्ते क्रूरँ यदास्थितन्तत्त आप्यायतान्निष्प्यायतान्तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः । ओषधे त्रायस्व स्वधिते मैनँ हिँसीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मनः। ते। आ। प्यायताम्। वाक्। ते। आ। प्यायताम्। प्राणः। ते। आ। प्यायताम्। चक्षुः। ते। आ। प्यायताम्। श्रोत्रम्। ते। आ। प्यायताम्। यत्। ते। क्रूरम्। यत्। आस्थितमित्याऽस्थितम्। तत्। ते। आ। प्यायताम्। निः। स्त्यायताम्। तत्। ते। शुध्यतु। शम्। अहोभ्य इत्यहःऽभ्यः। ओषधे। त्रायस्व। स्वधित इति स्वऽधिते। मा। एनम्। हिꣳसीः॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    हे शिष्य! मेरी शिक्षा से (ते) तेरा (मनः) मन (आप्यायताम्) पर्य्याप्त गुणयुक्त हो, (ते) तेरा (प्राणः) प्राण (आप्यायताम्) बलादि गुणयुक्त हो, (ते) तेरी (चक्षुः) दृष्टि (आप्यायताम्) निर्मल हो, (ते) तेरे (श्रोत्रम्) कर्ण (आप्यायताम्) सद्गुण व्याप्त हों, (ते) तेरा (यत्) जो (क्रूरम्) दुष्ट व्यवहार है, वह (निः) (स्त्यायताम्) दूर हो और (यत्) जो (ते) तेरा (आस्थितम्) निश्चय है, वह (आप्यायताम्) पूरा हो। इस प्रकार से (ते) तेरा समस्त व्यवहार (शुध्यतु) शुद्ध हो और (अहोभ्यः) प्रतिदिन तेरे लिये (शम्) सुख हो। हे (ओषधे) प्रवर अध्यापक! आप (एनम्) इस शिष्य की (त्रायस्व) रक्षा कीजिये और (मा हिंसीः) व्यर्थ ताड़ना मत कीजिये। हे (स्वधिते) प्रशस्ताध्यापिके! तू इस कुमारिका शिष्या की (त्रायस्व) रक्षा कर और इस को अयोग्य ताड़ना मत दे॥१५॥

    भावार्थ - सत्कर्म करने से सब की उन्नति होती है, इस से सब मनुष्यों को चाहिये कि सुशिक्षा पाकर समस्त सत्कर्मों का अनुष्ठान करें। इसी से अध्यापक जन गुणग्रहण कराने ही के लिये शिष्यों को ताड़ना देते हैं, वह उनकी ताड़ना अत्यन्त सुख की करने वाली होती है। स्त्री और पुरुष इस प्रकार उपदेश करें कि हे सर्वोत्तम अध्यापक! यह आपका विद्यार्थी जैसे शीघ्र विद्वान् हो जाय, वैसा प्रयत्न कीजिये। हे प्रिये! यह कन्या जिस प्रकार अतिशीघ्र विद्यायुक्त हो, वैसा काम कर॥१५॥

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