यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 20
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - त्वष्टा देवता
छन्दः - ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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ऐ॒न्द्रः प्रा॒णोऽअङ्गे॑ऽअङ्गे॒ निदी॑ध्यदै॒न्द्रऽउ॑दा॒नोऽअङ्गे॑ऽअङ्गे॒ निधी॑तः। देव॑ त्वष्ट॒र्भूरि॑ ते॒ सꣳस॑मेतु॒ सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपं॒ भवा॑ति। दे॒व॒त्रा यन्त॒म॑वसे॒ सखा॒योऽनु॑ त्वा मा॒ता पि॒तरो॑ मदन्तु॥२०॥
स्वर सहित पद पाठऐ॒न्द्रः। प्रा॒णः। अङ्गे॑ऽअङ्ग॒ इत्यङ्गे॑ऽअङ्गे। नि। दी॒ध्य॒त्। ऐ॒न्द्रः। उ॒दा॒न इत्यु॑त्ऽआ॒नः। अङ्गे॑ऽअङ्ग॒ इत्यङ्गे॑ऽअङ्गे। निधी॑त॒ इति॒ निऽधीतः। देव॑। त्व॒ष्ट॒। भूरि॑। ते॒। सꣳस॒मिति॒ सम्ऽस॑म्। ए॒तु॒। सल॒क्ष्मेति॒ सऽल॑क्ष्म। यत्। विषु॑रूप॒मिति॒ वि॒षु॑ऽरूपम्। भवा॑ति। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। यन्त॑म्। अव॑से। सखा॑यः। अनु॑। त्वा॒। मा॒ता॒। पि॒तरः॑। म॒द॒न्तु॒ ॥२०॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐन्द्रः प्राणोऽअङ्गेअङ्गे निदीध्यदैन्द्रऽउदानोऽअङ्गेअङ्गे निधीतः । देव त्वष्टर्भूरि ते सँसमेतु सलक्ष्मा यद्विषुरूपम्भवाति । देवत्रा यन्तमवसे सखायोनु त्वा माता पितरो मदन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऐन्द्रः। प्राणः। अङ्गेऽअङ्ग इत्यङ्गेऽअङ्गे। नि। दीध्यत्। ऐन्द्रः। उदान इत्युत्ऽआनः। अङ्गेऽअङ्ग इत्यङ्गेऽअङ्गे। निधीत इति निऽधीतः। देव। त्वष्ट। भूरि। ते। सꣳसमिति सम्ऽसम्। एतु। सलक्ष्मेति सऽलक्ष्म। यत्। विषुरूपमिति विषुऽरूपम्। भवाति। देवत्रेति देवऽत्रा। यन्तम्। अवसे। सखायः। अनु। त्वा। माता। पितरः। मदन्तु॥२०॥
विषय - फिर संग्राम में वीर पुरुष आपस में कैसे वर्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे (त्वष्टः) शत्रुबलविदारक (देव) दिव्यविद्यासम्पन्न सेनापति! आप (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अङ्गे अङ्गे) जैसे अङ्ग-अङ्ग में (ऐन्द्रः) इन्द्र अर्थात् जीव जिस का देवता है, वह सब शरीर में ठहरने वाला प्राणवायु सब वायुओं को तिरस्कार करता हुआ आप ही प्रकाशित होता है, वैसे आप संग्राम में सब शत्रुओं का तिरस्कार करते हुए (निदीध्यत्) प्रकाशित हूजिये अथवा (अङ्गे अङ्गे) जैसे अङ्ग-अङ्ग में (उदानः) अन्न आदि पदार्थों को ऊर्ध्व पहुंचाने वाला उदानवायु प्रवृत्त है, वैसे अपने विभव से सब वीरों को उन्नति देते हुए संग्राम में (निधीतः) निरन्तर स्थापित किये हुए के समान प्रकाशित हूजिये (यत्) जो (ते) आप का (विषुरूपम्) विविध रूप (सलक्ष्म) परस्पर युद्ध का लक्षण (भवाति) हो, वह (संग्रामे) संग्राम में (भूरि) विस्तार से (संसम्) (एतु) प्रवृत्त हो। हे सेनाध्यक्ष! तेरी रक्षा के लिये सब शूरवीर पुरुष (सखायः) मित्र हो के वर्तें, (माता) माता (पितरः) पिता, चाचा, ताऊ, भृत्य और शुभचिन्तक (देवत्रा) देवों अर्थात् विद्वानों, धर्मयुक्त युद्ध और व्यवहार को (यन्तम्) प्राप्त होते हुए (त्वा) तेरा (अनुमदन्तु) अनुमोदन करें॥२०॥
भावार्थ - सब प्राणियों का मित्रभाव वर्त्तने वाला सेनापति जैसे प्रत्येक अङ्ग में प्राण और उदान प्रवर्त्तमान हैं, वैसे संग्राम में विचरता हुआ सेना और राजपुरुषों को हर्षित करके शत्रुओं को जीते॥२०॥
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