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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 30
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी पङ्क्ति,भूरिक् आर्ची पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    6

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ताभ्याम्। आद॑दे॒ रावा॑सि गभी॒रमि॒मम॑ध्व॒रं कृ॑धीन्द्रा॑य सु॒षूत॑मम्। उ॒त्त॒मेन॑ प॒विनोर्ज॑स्वन्तं॒ मधु॑मन्तं॒ पय॑स्वन्तं निग्रा॒भ्या स्थ देव॒श्रुत॑स्त॒र्पय॑त मा॒॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। रावा॑। अ॒सि॒। ग॒भी॒रम्। इ॒मम्। अ॒ध्व॒रम्। कृ॒धि॒। इन्द्रा॑य। सु॒षूत॑मम्। सु॒सूत॑मा॒मिति॑ सु॒ऽसूत॑मम्। उ॒त्त॒मेनेत्यु॑त्ऽत॒मेन॑। प॒विना॑। ऊर्ज्ज॑स्वन्तम्। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। पय॑स्वन्तम्। निग्रा॒भ्या᳖ इति॑ निऽग्रा॒भ्याः᳖ स्थ॒। दे॒व॒ऽश्रुत॒ इति देव॒श्रु॒तः॑। त॒र्पय॑त। मा॒ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे रावासि गभीरमिममध्वरङ्कृधीन्द्राय सुषूतमम् । उत्तमेन पविनोर्जस्वन्तम्मधुमन्तम्पयस्वन्तम् । निग्राभ्या स्थ देवश्रुतस्तर्पयत मा मनो मे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। रावा। असि। गभीरम्। इमम्। अध्वरम्। कृधि। इन्द्राय। सुषूतमम्। सुसूतमामिति सुऽसूतमम्। उत्तमेनेत्युत्ऽतमेन। पविना। ऊर्ज्जस्वन्तम्। मधुमन्तमिति मधुऽमन्तम्। पयस्वन्तम्। निग्राभ्या इति निऽग्राभ्याः स्थ। देवऽश्रुत इति देवश्रुतः। तर्पयत। मा॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -
    सब सुख देने (सवितुः) और समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम गुणों से (पूष्णः) पुष्टि करने वाले सोम आदि ओषधिगण के (हस्ताभ्याम्) रोगनाश करने और धातुओं की समता रखने वाले गुणों से (त्वा) तुझ कर-धन देने वाले को (आददे) स्वीकार करता हूं। तू (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य वाले मेरे लिये (उत्तमेन) उत्तम अर्थात् सभ्यता की (पविना) वाणी से (इमम्) इस (गभीरम्) अत्यन्त समझने योग्य (सुषूतमम्) सब पदार्थों से उत्पन्न हुए (ऊर्जस्वन्तम्) राज्य को बलिष्ठ करने वाले (मधुमन्तम्) समस्त मधु आदि श्रेष्ठ पदार्थयुक्त (पयस्वन्तम्) दुग्ध आदि सहित कर-धन को (अध्वरम्) निष्कपट (कृधि) कर दे, (देवश्रुतः) श्रेष्ठ राज्य-गुणों को सुनने वाले तुम मेरे (निग्राभ्यः) निरन्तर स्वीकार करने के योग्य (स्थ) हो (मा) मुझे इस कर के देने से (तर्प्पयत) तृप्त करो॥३०॥

    भावार्थ - प्रजाजनों की योग्यता है कि सभाध्यक्ष को प्राप्त होकर उस के लिये अपने समस्त पदार्थों से यथायोग्य भाग दें, जिस कारण राजा, प्रजापालन के लिये संसार में उत्पन्न हुआ है, इसी से राज्य करने वाला यह राजा संसार के पदार्थों का अंश लेने वाला होता है॥३०॥

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