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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री, स्वरः - षड्जः
    6

    विष्णोः॒ कर्म्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑ कर्म्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॒। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः कर्म्माणि। पश्यत। यतः। व्रतानि। पस्पशे। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    हे सभासदो! जैसे (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्यः) सदाचारयुक्त (सखा) मित्र (विष्णोः) उस व्यापक ईश्वर के (कर्माणि) जो संसार का बनाना पालन और संहार करना सत्यगुण हैं, उनको देखता हुआ मैं (यतः) जिस ज्ञान से (व्रतानि) अपने मन में सत्यभाषणादि नियमों को (पस्पशे) बांध रहा अर्थात् नियम कर रहा हूं, वैसे उसी ज्ञान से तुम भी परमेश्वर के उत्तम गुणों को (पश्यत) दृढ़ता से देखो कि जिस से राज्यादि कामों में सत्य व्यवहार के करने वाले होओ॥४॥

    भावार्थ - परमेश्वर से प्रीति और सत्याचरण के विना कोई भी मनुष्य ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव को देखने के योग्य नहीं हो सकता, न वैसे हुए विना राज्यकर्मों को यथार्थ न्याय से सेवन कर सकता है, न सत्य धर्माचार से रहित जन राज्य बढ़ाने को कभी समर्थ हो सकता है॥४॥

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