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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवता छन्दः - प्राजापत्या बृहती,भूरिक् आर्षी गायत्री स्वरः - मध्यमः
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    अ॒पां पे॒रुर॒स्यापो॑ दे॒वीः स्व॑दन्तु स्वा॒त्तं चि॒त्सद्दे॑वह॒विः। सं ते॑ प्रा॒णो वाते॑न गच्छता॒ꣳ समङ्गा॑नि॒ यज॑त्रैः॒ सं य॒ज्ञप॑तिरा॒शिषा॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। पे॒रुः। अ॒सि॒। आपः॑। दे॒वीः। स्व॒द॒न्तु॒। स्वा॒त्तम्। चि॒त्। सत्। दे॒व॒ह॒विरिति॑ देवऽह॒विः। सम्। ते॒। प्रा॒णः। वाते॑न। ग॒च्छ॒ता॒म्। अङ्गा॑नि। यज॑त्रैः। यज्ञप॑तिरिति॑ य॒ज्ञऽपतिः। आ॒शिषेत्या॒ऽशिषा॑ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाम्पेरुरस्यापो देवीः स्वदन्तु स्वात्तञ्चित्सद्देवहविः । सन्ते प्राणो वातेन गच्छताँ समङ्गानि यजत्रैः सँयज्ञपतिराशिषा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। पेरुः। असि। आपः। देवीः। स्वदन्तु। स्वात्तम्। चित्। सत्। देवहविरिति देवऽहविः। सम्। ते। प्राणः। वातेन। गच्छताम्। अङ्गानि। यजत्रैः। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। आशिषेत्याऽशिषा॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    हे शिष्य! तू (अपाम्) जल आदि पदार्थों का (पेरुः) रक्षा करने वाला (असि) है, संसारस्थ जीव तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए (देवीः) दिव्य सुख देने वाले (आपः) जलों को (चित्) और (स्वात्तम्) धर्मयुक्त व्यवहार से प्राप्त हुए पदार्थों को (देवहविः) विद्वानों के भोगने के समान (संस्वदन्तु) अच्छी तरह से भोगें, (आशिषा) मेरे आशीर्वाद से (ते) तेरे (अङ्गानि) शिर आदि अवयव (यजत्रैः) यज्ञ कराने वालों के साथ (सम्) सम्यक् नियुक्त हों और (प्राणः) प्राण (वातेन) पवित्र वायु के संग (सङ्गच्छताम्) उत्तमता से रमण करे और तू (यज्ञपतिः) विद्याप्रचाररूपी यज्ञ का पालन करने हारा हो॥१०॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञ में दी हुई आहुति हैं, वे सूर्य के उपस्थित रहती हैं अर्थात् सूर्य की आकर्षण शक्ति से परमाणुरूप होकर सब पदार्थ पृथिवी के ऊपर आकाश में हैं, उसी पृथिवी का जल ऊपर खिंचकर वर्षा होती है, उस वर्षा से अन्न और अन्न से सब जीवों को सुख होता है, इस परम्परा सम्बन्ध से यज्ञशोधित जल और होम किये द्रव्य को सब जीव भोगते हैं॥१०॥

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