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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    सूक्त - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    यन्म॒न्युर्जा॒यामाव॑हत्संक॒ल्पस्य॑ गृ॒हादधि॑। क आ॑सं॒ जन्याः॒ के व॒राः क उ॑ ज्येष्ठव॒रोभ॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । म॒न्यु: । जा॒याम् । आ॒ऽअव॑हत् । स॒म्ऽक॒ल्पस्य॑ । गृ॒हात् । अधि॑ । के । आ॒स॒न् । जन्या॑: । के । व॒रा: । क: । ऊं॒ इति॑ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽव॒र: । अ॒भ॒व॒त् ॥१०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मन्युर्जायामावहत्संकल्पस्य गृहादधि। क आसं जन्याः के वराः क उ ज्येष्ठवरोभवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । मन्यु: । जायाम् । आऽअवहत् । सम्ऽकल्पस्य । गृहात् । अधि । के । आसन् । जन्या: । के । वरा: । क: । ऊं इति । ज्येष्ठऽवर: । अभवत् ॥१०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यत्) जब (मन्युः) सर्वज्ञ [परमेश्वर] (जायाम्) सृष्टि की क्रिया को (संकल्पस्य) सङ्कल्प [मनोविचार] के (गृहात्) ग्रहण [स्वीकार करने] से (अधि) अधिकारपूर्वक (आवहत्) सब ओर लाया [प्रकट किया]। (के) कौन (जन्याः) उत्पत्ति में साधक [योग्य] पदार्थ और (के) कौन (वराः) वर [वरणीय, इष्टफल] (आसन्) थे, (कः उ) कौन ही (ज्येष्ठवरः) सर्वोत्तम वरों [इष्टफलों] का देनेवाला (अभवत्) हुआ ॥१॥

    भावार्थ - जब ईश्वर ने सृष्टि को रचना चाहा, तब यह प्रश्न उत्पन्न हुए−किन पदार्थों से सृष्टि की जावे, किस प्रयोजन के लिये वह होवे, और कौन उसका स्वामी हो। इस का उत्तर आगे है ॥१॥

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