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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
    सूक्त - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    तप॑श्चै॒वास्तां॒ कर्म॑ चा॒न्तर्म॑ह॒त्यर्ण॒वे। तपो॑ ह जज्ञे॒ कर्म॑ण॒स्तत्ते ज्ये॒ष्ठमुपा॑सत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तप॑: । च॒ । ए॒व । आ॒स्ता॒म् । कर्म॑ । च॒ । अ॒न्त: । म॒ह॒त‍ि । अ॒र्ण॒वे । तप॑: । ह॒ । ज॒ज्ञे॒ । कर्म॑ण: । तत् । ते । ज्ये॒ष्ठम् । उप॑ । आ॒स॒त॒ ॥१०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवे। तपो ह जज्ञे कर्मणस्तत्ते ज्येष्ठमुपासत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तप: । च । एव । आस्ताम् । कर्म । च । अन्त: । महत‍ि । अर्णवे । तप: । ह । जज्ञे । कर्मण: । तत् । ते । ज्येष्ठम् । उप । आसत ॥१०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (तपः) तप [ईश्वर का सामर्थ्य] (च च) और (कर्म) कर्म [प्राणियों के कर्म का फल] (एव) ही (महति अर्णवे अन्तः) बड़े समुद्र [परमेश्वर के गम्भीर सामर्थ्य] के भीतर (आस्ताम्) दोनों थे। (तपः) तप [ईश्वर का सामर्थ्य] (ह) निश्चय करके (कर्मणः) कर्म [कर्म के फल अनुसार शरीर, स्वभाव आदि रचना] से (जज्ञे) प्रकट हुआ है, (तत्) सो (ते) उन्होंने [ऋतु आदिकों ने-म० ५] (ज्येष्ठम्) सर्वश्रेष्ठ परमात्मा को (उप आसत) पूजा है ॥६॥

    भावार्थ - प्रलय में प्राणियों के कर्म फल और ईश्वरसामर्थ्य भी ईश्वर सामर्थ्य में रक्षित थे। फिर सृष्टिकाल में कर्मफलों के अनुसार प्राणियों के विविध प्रकार शरीर और स्वभाव प्रकट हुए। उससे परमात्मा ही सर्वनियन्ता प्रतीत हुआ ॥६॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऊपर म० २ में आ चुका है ॥

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