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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 29
    सूक्त - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    अस्थि॑ कृ॒त्वा स॒मिधं॒ तद॒ष्टापो॑ असादयन्। रेतः॑ कृत्वाज्यं॑ दे॒वाः पुरु॑ष॒मावि॑शन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्थि॑ । कृ॒त्वा । स॒म्ऽइध॑म् । तत् । अ॒ष्ट । आप॑: । अ॒सा॒द॒य॒न् । रेत॑: । कृ॒त्वा । आज्य॑म् । दे॒वा: । पुरु॑षम् । आ । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्थि कृत्वा समिधं तदष्टापो असादयन्। रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषमाविशन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्थि । कृत्वा । सम्ऽइधम् । तत् । अष्ट । आप: । असादयन् । रेत: । कृत्वा । आज्यम् । देवा: । पुरुषम् । आ । अविशन् ॥१०.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 29

    पदार्थ -
    (आपः) व्यापक (देवाः) दिव्य गुणों [ईश्वरनियमों] ने (तत्) फिर (अस्थि) हड्डी को (समिधम्) समिधा [इन्धन समान पाकसाधन] (कृत्वा) बनाकर और (रेतः) वीर्य [वा स्त्रीरज] को (आज्यम्) घृत [घृत समान पुष्टिकारक] (कृत्वा) बनाकर (अष्ट) आठ प्रकार से [रस अर्थात् खाये अन्न का सार, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, वीर्य, वा स्त्रीरज इन सात धातुओं और मन के द्वारा] (पुरुषम्) पुरुष [प्राणी के शरीर] को (असादयन्) चलाया, और [उस में] (आ अविशन्) उन्होंने प्रवेश किया ॥२९॥

    भावार्थ - सर्वव्यापक परमेश्वर ने अपनी शक्ति के प्रवेश से प्रधानता से हड्डियों को काष्ठ रूप अन्न आदि के पाक का साधन और पुरुष के वीर्य वा स्त्री के रज को घृत समान पुष्टिकारक बनाकर रस, रक्त, मांस आदि सात धातुओं और मन के द्वारा प्राणियों के शरीर को कार्ययोग्य किया है ॥२९॥

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