अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 33
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
प्र॑थ॒मेन॑ प्रमा॒रेण॑ त्रे॒धा विष्व॒ङ्वि ग॑च्छति। अ॒द एके॑न॒ गच्छ॑त्य॒द एके॑न गच्छती॒हैके॑न॒ नि षे॑वते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒थ॒मेन॑ । प्र॒ऽभा॒रेण॑ । त्रे॒धा । विष्व॑ङ् । वि । ग॒च्छ॒ति॒ । अ॒द: । एके॑न । गच्छ॑ति । अ॒द: । एके॑न । ग॒च्छ॒ति॒ । इ॒ह । एके॑न । नि । से॒व॒ते॒ ॥१०.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रथमेन प्रमारेण त्रेधा विष्वङ्वि गच्छति। अद एकेन गच्छत्यद एकेन गच्छतीहैकेन नि षेवते ॥
स्वर रहित पद पाठप्रथमेन । प्रऽभारेण । त्रेधा । विष्वङ् । वि । गच्छति । अद: । एकेन । गच्छति । अद: । एकेन । गच्छति । इह । एकेन । नि । सेवते ॥१०.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 33
विषय - सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ -
(प्रथमेन) पहिले [मरणसमय के पहिले] से और (प्रमारेण) मरण के साथ (त्रेधा) तीन प्रकार पर (विष्वङ्) नाना गति से वह [प्राणी] (वि गच्छति) चला चलता है। वह [प्राणी] (एकेन) एक [शुभ कर्म] से (अदः) उस [मोक्षसुख] को (गच्छति) पाता है, (एकेन) एक [पाप कर्म] से (अदः) उस [नरक स्थान] को (गच्छति) पाता है, (एकेन) एक [पुण्य-पाप के साथ मिले कर्म] से (इह) यहाँ पर [मध्य अवस्था में] (नि सेवते) नियम से रहता है ॥३३॥
भावार्थ - मनुष्य जीवनकाल और परलोक में अपने शुभ कर्म से मोक्ष, अशुभ कर्म से नरक, और दोनों पुण्य-पाप की मध्य अवस्था में मोक्ष और नरक की मध्य अवस्था भोगता है ॥३३॥
टिप्पणी -
३३−(प्रथमेन) मरणात् प्रथमकालेन (प्रमारेण) मरणेन सह (त्रेधा) त्रिप्रकारेण (विष्वङ्) विषु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। नानागत्या (वि गच्छति) व्याप्य चलति (अदः) तत्। मोक्षपदम् (एकेन) पुण्यकर्मणा (गच्छति) प्राप्नोति (अदः) तत्। नरकस्थानम् (एकेन) पापकर्मणा (इह) अत्र। मोक्षनरकयोर्मध्यावस्थायाम् (एकेन) पुण्यपापमिश्रितेन कर्मणा (नि) नितराम्। नियमेन (सेवते) भुनक्ति ॥