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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 34
    सूक्त - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    अ॒प्सु स्ती॒मासु॑ वृ॒द्धासु॒ शरी॑रमन्त॒रा हि॒तम्। तस्मि॒ञ्छवोऽध्य॑न्त॒रा तस्मा॒च्छवोऽध्यु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । स्ती॒मासु॑ । वृ॒ध्दासु॑ । शरी॑रम् । अ॒न्त॒रा । हि॒तम् । तस्मि॑न् । शव॑: । अधि॑ । अ॒न्त॒रा । तस्मा॑त् । शव॑: । अधि॑ । उ॒च्य॒ते॒ ॥१०.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सु स्तीमासु वृद्धासु शरीरमन्तरा हितम्। तस्मिञ्छवोऽध्यन्तरा तस्माच्छवोऽध्युच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । स्तीमासु । वृध्दासु । शरीरम् । अन्तरा । हितम् । तस्मिन् । शव: । अधि । अन्तरा । तस्मात् । शव: । अधि । उच्यते ॥१०.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 34

    पदार्थ -
    (स्तीमासु) बाफवाले, (वृद्धासु) बढ़े हुए (अप्सु अन्तरा) अन्तरिक्ष के भीतर (शरीरम्) शरीर (हितम्) रक्खा हुआ है। (तस्मिन् अन्तरा) उस [शरीर] के भीतर (शवः) बल [गतिकारक वा वृद्धिकारक जीवात्मा] (अधि) अधिकारपूर्वक है, (तस्मात्) उस [जीवात्मा] से (अधि) ऊपर (शवः) बल [गतिकारक वा वृद्धिकारक परमात्मा] (उच्यते) कहा जाता है ॥३४॥

    भावार्थ - विशाल आकाश के भीतर मेघ, वायु आदि पदार्थ हैं। उस आकाश के भीतर सब शरीर हैं, शरीरों में चेतन्य जीवात्मा अधिष्ठाता है। उस जीवात्मा का भी अधिष्ठाता सर्वनियन्ता परमात्मा है ॥३४॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥

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