अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - पदपङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
मा॑त॒रिश्वा॑ च॒पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
मातरिश्वा चपवमानश्च विपथवाहौ वातः सारथी रेष्मा प्रतोदः ॥
स्वर रहित पद पाठमातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
विषय - परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ -
(मातरिश्वा) आकाश मेंघूमनेवाला सूत्रात्मा [वायु विशेष] (च च) और भी (पवमानः) संशोधक वायु (विपथवाहौ) दो रथ ले चलनेवाले [बैल घोड़े आदि समान], (वातः) वात [सामान्य वायु] (सारथिः)सारथी [रथ हाँकनेवाले के समान] (रेष्मा) आँधी (प्रतोदः) अंकुश [कोड़ा, पैनासमान] ॥२७॥
भावार्थ - जो मनुष्य परमात्मामें लवलीन होता है, वही वेदज्ञान और मोक्षज्ञान से जितेन्द्रिय और सर्वहितैषीहोकर संसार में सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पाता है ॥२४-२८॥
टिप्पणी -
२७−यथा मन्त्रः ७ ॥