अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - पदपङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
मा॑त॒रिश्वा॑ च॒पव॑मानश्च विपथवा॒हौ वातः॒ सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
मातरिश्वा चपवमानश्च विपथवाहौ वातः सारथी रेष्मा प्रतोदः ॥
स्वर रहित पद पाठमातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: ॥२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
विषय - परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ -
(मातरिश्वा) आकाश मेंघूमनेवाला सूत्रात्मा [वायु विशेष] (च च) और भी (पवमानः) संशोधक वायु (विपथवाहौ)दो रथ ले चलनेवाले [बैल घोड़े आदि समान], (वातः) वात [सामान्य वायु] (सारथिः)सारथी [रथ हाँकनेवाले के समान] (रेष्मा) आँधी (प्रतोदः) अङ्कुश [कोड़ा, पैनासमान] ॥७॥
भावार्थ - जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् कर लेता है, वहपूर्णकाम और पूर्ण विज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥
टिप्पणी -
७−(मातरिश्वा) आकाशेगमनशीलः सूत्रात्मा वायुः (च) (पवमानः) संशोधको वायुः (च) (विपथवाहौ) रथवाहकौवृषभौ यथा (वातः) सामान्यपवनः (सारथिः) सर्तेर्णिच्च। उ० ४।८९। सृ गतौ-घथिन्, णित्। रथचालकः (रेष्मा) रिष हिंसायाम्-मनिन्। प्रचण्डवायुः (प्रतोदः) तुद-घञ्।अश्वादिताडनदण्डः ॥