अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
भू॒तं च॑भवि॒ष्यच्च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम् ॥
स्वर सहित पद पाठभू॒तम् । च॒ । भ॒वि॒ष्यत् । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
भूतं चभविष्यच्च परिष्कन्दौ मनो विपथम् ॥
स्वर रहित पद पाठभूतम् । च । भविष्यत् । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् ॥२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
विषय - परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ -
(भूतम्) भूत [बीताहुआ] (च च) और भी (भविष्यत्) भविष्यत् [आनेवाला] (परिष्कन्दौ) [सब ओर चलनेवाले]दो सेवक [समान], (मनः) मन (विपथम्) विविध मार्गगामी रथ [यान आदि समान] ॥६॥
भावार्थ - जब मनुष्य योगाभ्यासकरके शुद्ध ज्ञान द्वारा परमाणु से लेकर परमेश्वर तक साक्षात् कर लेता है, वहपूर्णकाम और पूर्ण विज्ञानी होकर संसार में अपने आप कीर्ति और यश पाता है॥४-८॥
टिप्पणी -
६−(भूतम्) अतीतम् (च) (भविष्यत्) अनागतम् (च) (परिष्कन्दौ) स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-घञ्। परितो गन्तारौपरपुष्टौ। सेवकौ यथा (मनः) चित्तम् (विपथम्) विविधगमनं यानम् ॥