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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तं वै॑रू॒पं च॑वैरा॒जं चाप॑श्च॒ वरु॑णश्च॒ राजा॑नु॒व्यचलन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । वै॒रू॒पम् । च॒ । वै॒रा॒जम् । च॒ । आप॑: । च॒ । वरु॑ण: । च॒ । राजा॑ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं वैरूपं चवैराजं चापश्च वरुणश्च राजानुव्यचलन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । वैरूपम् । च । वैराजम् । च । आप: । च । वरुण: । च । राजा । अनुऽव्यचलन् ॥२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    (वैरूपम्) वैरूप [विविध पदार्थों का जतानेवाला वेदज्ञान] (च च) और (वैराजम्) वैराज [विराट् रूप, अर्थात् बड़े ऐश्वर्यवान् वा प्रकाशमान परमात्मा के स्वरूप का प्राप्त करानेवालामोक्षज्ञान] (च) और (आपः) प्रजाएँ [सृष्टि की वस्तुएँ] (च) और (राजा) राजा [ऐश्वर्यवान्] (वरुणः) श्रेष्ठ जीव [मनुष्य] (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्) पीछे-पीछे विचरे ॥१–६॥

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष साक्षात्करता है कि सब वेदज्ञान, मोक्षज्ञान और सृष्टि के पदार्थ, और सब सृष्टि मेंउत्तम यह मनुष्य उसी परमात्मा के आश्रित हैं ॥१–६॥

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