यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 18
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - शरदृतुर्देवता
छन्दः - भुरिगतिधृतिः
स्वरः - षड्जः
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अ॒यमु॑त्त॒रात् सं॒यद्व॑सु॒स्तस्य॒ तार्क्ष्य॒श्चारि॑ष्टनेमिश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। वि॒श्वाची॑ च घृ॒ताची॑ चाप्स॒रसा॒वापो॑ हे॒तिर्वातः॒ प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां जम्भे॑ दध्मः॥१८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। उ॒त्त॒रात्। सं॒यद्व॑सु॒रिति॑ सं॒यत्ऽव॑सुः। तस्य॑। तार्क्ष्यः॑। च॒। अरि॑ष्टनेमि॒रित्यरि॑ष्टऽनेमिः। च॒। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒ण्यौ᳖। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒न्या᳖विति॑ सेनानीग्राम॒न्यौ᳖। वि॒श्वाची॑। च॒। घृ॒ताची॑। च॒। अ॒प्स॒रसौ॑। आपः॑। हे॑तिः। वातः॑। प्रहे॑ति॒रिति॒ प्रऽहे॑तिः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥१८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमुत्तरात्सँयद्वसुस्तस्य तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च सेनानीग्रामण्या । विश्वाची च घृताची चाप्सरसावापो हेतिर्वातः प्रहेतिस्तेभ्यो नमोऽअस्तु ते नो वन्तु ते नो मृडयन्तु ते यन्द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषाञ्जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। उत्तरात्। संयद्वसुरिति संयत्ऽवसुः। तस्य। तार्क्ष्यः। च। अरिष्टनेमिरित्यरिष्टऽनेमिः। च। सेनानीग्रामण्यौ। सेनानीग्रामन्याविति सेनानीग्रामन्यौ। विश्वाची। च। घृताची। च। अप्सरसौ। आपः। हेतिः। वातः। प्रहेतिरिति प्रऽहेतिः। तेभ्यः। नमः। अस्तु। ते। नः। अवन्तु। ते। नः। मृडयन्तु। ते। यम्। द्विष्मः। यः। च। नः। द्वेष्टि। तम्। एषाम्। जम्भे। दध्मः॥१८॥
विषय - संयद् वसुः
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह राजा (उत्तरात्) = उत्तर दिशा में स्थित होता हुआ सचमुच राष्ट्र को उत्कृष्ट बनाता है। २. राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए ही यह (संयद्वसुः) = धन का नियमन करता है [वसु संयच्छति], करादि के उत्तम नियमों को बनाकर तथा व्यापार को भी व्यवस्थित करके यह धन को किसी एक स्थान में केन्द्रित नहीं होने देता। ३. (तस्य) = इसका (सेनानी:) = सेनापति (तार्क्ष्यः) = शत्रुओं पर उसी प्रकार आक्रमण करनेवाला होता है जैसेकि गरुड़ सर्पों पर और इसका (ग्रामणीः) = ग्रामनायक (अरिष्टनेमिः) = धर्म-मार्गों की परिधि को या मर्यादा को हिंसित नहीं होने देता [ अ नहीं रिष्ट - हिंसित नेमि मर्यादा] ४. सेनानी के दृष्टिकोण से इसके (अप्सरस्) = ऑफ़िसर्स विश्वाची सारे राष्ट्र की सीमा पर, राष्ट्र के चारों ओर गतिवाले होते है तथा ग्रामनायक के (अप्सरस्) = अफ़सर (घृताची) = घृतादि उत्तम पदार्थों को प्राप्त करानेवाले होते हैं। इस प्रकार ये 'शारदौ ऋतू' = बाहर व अन्दर के उपद्रवों को शीर्ण करनेवाले व नियमित गति से राष्ट्र को चलानेवाले होते हैं। अन्दर के उपद्रव प्रायः तभी होते हैं, जब प्रजा को आवश्यक पदार्थ भी दुर्लभ हो जाते हैं। ५. (आपः) = सारे प्रान्त-भागों में व्याप्त हो जानेवाले [आप्लृ व्याप्तौ ] सैनिक ही इसके (हेतिः) = शत्रुओं से रक्षक वज्र के समान हैं और (वात:) = वायु के समान प्रजा को जीवन देनेवाले ग्रामाध्यक्ष इसके (प्रहेतिः) = प्रकृष्ट वज्र है, क्योंकि ये ही राष्ट्र को अन्तःकोप का शिकार नहीं होने देते। ६. (तेभ्यः) = इन सबके लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार हो। (ते नः अवन्तु) = ये हमारी रक्षा करें। (ते नः मृडयन्तु) = ये हमें सुखी करें। (ते) = वे हम (यं द्विष्मः) = जिससे प्रीति नहीं कर पाते (यः च नः द्वेष्टि) = और जो हम सबसे द्वेष करता है (तम्) = उसे (एषाम्) = इन अधिकारियों के (जम्भे) = न्याय के जबड़े में (दध्मः) = स्थापित करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - राजा का यह महान् कार्य है कि वह राष्ट्र में धन का पूर्ण नियमन करे । इसी के विषम असम विभाग से राष्ट्र में अतिभुक्त [overfed] व अल्पभुक्त [underfed ] ये दो श्रेणियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और राष्ट्र रोगी हो जाता है। इसके सैनिक सारे प्रान्त - भाग में व्याप्त होकर देश की रक्षा करें और अन्य अध्यक्ष जीवन की आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराने की व्यवस्था करें।
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