यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 41
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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अ॒ग्निं तं म॑न्ये॒ यो वसु॒रस्तं॒ यं य॑न्ति धे॒नवः॑। अस्त॒मर्व॑न्तऽआ॒शवोऽस्तं॒ नित्या॑सो वा॒जिन॒ऽइष॑ꣳस्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्। तम्। म॒न्ये॒। यः। वसुः॑। अस्त॑म्। यम्। यन्ति॑। धे॒नवः॑। अस्त॑म्। अर्व॑न्तः। आ॒शवः॑। अस्त॑म्। नित्या॑सः। वा॒जिनः॑। इष॑म्। स्तो॒तृभ्य॒ इति॑ स्तो॒तृऽभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥४१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निन्तम्मन्ये यो वसुरस्तँयँयन्ति धेनवः । अस्तमर्वन्त आशवो स्तन्नित्यासो वाजिन इष स्तोतृभ्यऽआ भर ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम्। तम्। मन्ये। यः। वसुः। अस्तम्। यम्। यन्ित। धेनवः। अस्तम्। अर्वन्तः। आशवः। अस्तम्। नित्यासः। वाजिनः। इषम्। स्तोतृभ्य इति स्तोतृऽभ्यः। आ। भर॥४१॥
विषय - अग्निः अस्तम्
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार कामादि का पराजय करके (यः) = जो (वसुः) = शरीर में अपने निवास को उत्तम बनाता है, अर्थात् शरीर को व्याधियों से शून्य और मन को आधियों से रहित करता है (तम्) = उसी वसु को (अग्निं मन्ये) = मैं अग्नि मानता हूँ, उसी को उन्नतिशील कहता हूँ। प्रभु की दृष्टि में अग्नि वही है जो (आधि) = व्याधिशून्य जीवनवाला है। २. ये 'अग्नि' जिन घरों में उत्पन्न होते हैं, उन घरों का लक्षण करते हुए कहते हैं कि (अस्तम्) = मैं घर उसी को कहता हूँ (यम्) = जिसकी ओर (धेनवः) = गौवें (यन्ति) = आती हैं। गृहसूक्त के शब्द स्मरणीय हैं कि 'आ धनेवः सायमास्पन्दमानाः' घरों में सायंकाल उछलती-कूदती गौवें आएँ। ३. (अस्तम्) = घर उसे मानता हूँ जिसमें (आशवः) = शीघ्रता से मार्गों के व्यापनेवाले (अर्वन्तः) = घोड़े यन्ति जाते हैं। घरों में गौवे हों, घोड़े हों। गौवें सात्त्विकता की वृद्धि का कारण बनती हैं तो घोड़े शक्ति की वृद्धि में साधन बनते हैं । ४. (अस्तम्) = घर वह है जिसमें (नित्यासः वाजिनः) = स्थिर शक्ति देनेवाले अन्न प्राप्त होते हैं। [नि=in, त्य= होनेवाले, अर्थात् स्थिर पौष्टिक, वाज - शक्ति] ५. हे प्रभो ! आप (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए (इषम्) = प्रेरणा (आभर) = प्राप्त कराइए, जिससे वे स्तोता मन्त्र- वर्णित घर को ही बनानेवाले हों और उन घरों में 'अग्नि' बनने का प्रयत्न करें।
भावार्थ - भावार्थ - घर वही है, जिसमें १. दुधारू गौवें आती हैं। २. तीव्र गतिवाले घोड़े आते हैं, और ३. सदा यज्ञ की वृत्तिवाले लोग आते हैं। इन घरों में रहनेवाला अग्नि-उन्नतिशील पुरुष वही है जिसने अपने को पूर्ण स्वस्थ बनाकर उत्तमता से निवास किया है।
- सूचना - 'नित्यासः वाजिनः' का अर्थ यह भी हो सकता है कि सदा यज्ञिय कर्मों के करनेवाले [वाज = A sacrificial act]।
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