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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 29
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सखा॑यः॒ सं वः॑ स॒म्यञ्च॒मिष॒ꣳस्तोमं॑ चा॒ग्नये॑। वर्षि॑ष्ठाय क्षिती॒नामू॒र्जो नप्त्रे॒ सह॑स्वते॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सखा॑यः। सम्। वः। स॒म्यञ्च॑म्। इष॑म्। स्तोम॑म्। च॒। अ॒ग्नये॑। वर्षि॑ष्ठाय। क्षि॒ती॒नाम्। ऊ॒र्जः। नप्त्रे॑। सह॑स्वते ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सखायः सँवः सम्यञ्चमिषँ स्तोमं चाग्नये । वर्षिष्ठाय क्षितीनामूर्जा नप्त्रे सहस्वते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सखायः। सम्। वः। सम्यञ्चम्। इषम्। स्तोमम्। च। अग्नये। वर्षिष्ठाय। क्षितीनाम्। ऊर्जः। नप्त्रे। सहस्वते॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -
    १. (सखायः) = ज्ञान-सम्पादन के द्वारा प्रभु के मित्र बननेवालो! (अग्नये) = उस अग्रेणी प्रभु के लिए (सम्यञ्चम्) = [सम् अञ्च्] उत्तम पूजन को (इषम्) = गति को (स्तोमं च) = और स्तुति - समूह को (सम्) = [सम्पादयत] सिद्ध करो। प्रभु -प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम देवपूजा की वृत्तिवाले हों - उत्तम गतिवाले हों, प्रभु प्रेरणा को सुनकर तदनुसार कार्य करनेवाले हों और प्रभु के गुणों का स्तवन करते हुए उन्हीं गुणों को धारण करनेवाले बनें। २. उस प्रभु के लिए हम इस पूजा, गति व स्तुति का सम्पादन करें जो (वर्षिष्ठाय) = श्रेष्ठ व वृद्धतम हैं, पुराणपुरुष हैं अथवा अतिशयेन आनन्द की वर्षा करनेवाले हैं। ३. (क्षितीनाम्) = उत्तम निवास व गतिवाले पुरुषों के [क्षि निवासगत्योः] (ऊर्जः नप्त्रे) = बल व प्राणशक्ति के नष्ट न होने देनेवाले हैं (न पतियित्रे), ४. जो प्रभु (सहस्वते) = सहस्वाले हैं। वस्तुत: सहस् के पुञ्ज हैं-सहोरूप हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के साधन पूजा, गति व स्तुति' हैं। वे प्रभु १. अग्नि = हमारी उन्नति के साधक है। २. वृद्धतम व सर्वाधिक आनन्द के वर्षक हैं । ३. हमारी शक्तियों को नष्ट न होने देनेवाले हैं तथा ४. सहस् के पुञ्ज हैं।

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