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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 17
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - वर्षुर्त्तर्देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
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    अ॒यं प॒श्चाद् वि॒श्वव्य॑चा॒स्तस्य॒ रथ॑प्रोत॒श्चास॑मरथश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। प्र॒म्लोच॑न्ती चानु॒म्लोच॑न्ती चाप्स॒रसौ॑ व्या॒घ्रा हे॒तिः स॒र्पाः प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। प॒श्चात्। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। तस्य॑। रथ॑प्रोत॒ इति॒ रथ॑ऽप्रोतः। च॒। अस॑मरथ॒ इत्यस॑मऽरथः। च॒। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒ण्यौ। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒न्याविति॑ सेनानीग्राम॒न्यौ। प्र॒म्लोच॒न्तीति॑ प्र॒ऽम्लोच॑न्ती। च॒। अ॒नु॒म्लोच॒न्तीत्य॑नु॒ऽम्लोच॑न्ती। च॒। अ॒प्स॒रसौ॑। व्या॒घ्राः। हे॒तिः। स॒र्पाः। प्रहे॑ति॒रिति॒ प्रऽहे॑तिः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयम्पश्चाद्विश्वव्यचास्तस्य रथप्रोतश्चासमरथश्च सेनानीग्रामण्या । प्रम्लोचन्ती चानुम्लोचन्ती चाप्सरसौ व्याघ्रा हेतिः सर्पा प्रहेतिस्तेभ्यो न मोऽअस्तु ते नो वन्तु ते नो मृडयन्तु ते यन्द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषाञ्जम्भे दध्मः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। पश्चात्। विश्वव्यचा इति विश्वऽव्यचाः। तस्य। रथप्रोत इति रथऽप्रोतः। च। असमरथ इत्यसमऽरथः। च। सेनानीग्रामण्यौ। सेनानीग्रामन्याविति सेनानीग्रामन्यौ। प्रम्लोचन्तीति प्रऽम्लोचन्ती। च। अनुम्लोचन्तीत्यनुऽम्लोचन्ती। च। अप्सरसौ। व्याघ्राः। हेतिः। सर्पाः। प्रहेतिरिति प्रऽहेतिः। तेभ्यः। नमः। अस्तु। ते। नः। अवन्तु। ते। नः। मृडयन्तु। ते। यम्। द्विष्मः। यः। च। नः। द्वेष्टि। तम्। एषाम्। जम्भे। दध्मः॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    १. (अयं पश्चात्) = यह राजा इन्द्रियों को विषयों से पीछे खेंचनेवाला, (विश्वव्यचा:) = [असौ वा आदित्यो विश्वव्यचा:-श० ८।६।१।१८ ] उदय होते ही पश्चिम की ओर [प्रतीची की ओर] चलना प्रारम्भ करनेवाले सूर्य के समान है [ विश्वं विचति व्याप्नोति प्रकाशयति ] । जैसे सूर्य सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करता है, इसी प्रकार इसकी शासन शक्ति भी सारे राष्ट्र में व्याप्त होती है। सूर्य की भाँति यह सर्वत्र ज्ञान का प्रकाश फैलाता है-सूर्य की भाँति कररूप जल का ग्रहण करता है। सूर्य की भाँति मलों को नष्ट कर राष्ट्रीय नीरोगता उत्पन्न करता है। २. (तस्य) = इस राजा के (रथप्रोतः च) = रथ में प्रोत- स्थिर-सा हुआ हुआ-सदा रथ से बँधा हुआ (सेनानी:) = सेनापति है। (असमरथः च) = अद्वितीय रथवाला - विशिष्ट गाड़ीवाला (ग्रामणीः) = ग्रामनायक है । सेनापति आवश्यकता पड़ते ही सदा युद्ध के लिए तैयार है, और ग्रामणी सदा रथ पर इधर-उधर घूमता हुआ व्यवस्था में लगा है इसका रथ कभी विश्रान्त न होने से अद्भुत है। 'वार्षिकौ तौ ऋतू - श० ८ । ६ । १ । १८' ये अपनी निरन्तर क्रियाशीलता से प्रजा पर सुखों की वर्षा करनेवाले हैं और बड़ी नियमित गतिवाले हैं। ३. प्रम्लोचन्ती [ अहः - श० ८।६।१।१८ ] जैसे दिन में सब प्राणी गतिवाले होते हैं उसी प्रकार (प्रम्लोचन्ती) = सेनानी के दृष्टिकोण से सेना को प्रकृष्ट गति देनेवाले इसके (अप्सरस्) = ऑफ़िसर्स होते हैं और ग्रामणी के दृष्टिकोण से [अनुम्लोचनी रात्रि :- श० ८ ६ । १ । १८ ] प्रति रात्रि की समाप्ति पर कार्यों में व्याप्त होनेवाले (अप्सरस्) = अफ़्सर होते हैं। सेना ने दिन-रात चौकन्ना रहना है, गति में रहना है। राष्ट्र के अन्य अध्यक्षों ने भी प्रतिदिन कार्य में व्याप्त होना है [म्लोचति = to go, move] । संक्षेप में सब अफ़सरों क्या फौजी और क्या सिविलियन-सभी के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है । ४. शत्रुओं से रक्षा करनेवाले (व्याघ्राः) = व्याघ्रों के समान सैनिक (हेतिः) = इसके राष्ट्र-रक्षक वज्र हैं तो (सर्पाः) = ग्रामणी के दृष्टिकोण से गुप्तचर रूप में सब न्यूनताओं का पता लगानेवाले (प्रहेतिः) = प्रकृष्ट वज्र हैं। ये राष्ट्र को अन्तः उपद्रवों से बचाने में सहायक होते हैं। ५. (तेभ्यः) = इस आदित्यतुल्य राजा, उसके सेनानी, ग्रामणी, उसके अप्सरस् तथा हेति-प्रहेति का (नमः अस्तु) = हम आदर करते हैं। (ते नः अवन्तु) = वे हमारी रक्षा करें। (ते नः मृडयन्तु) = वे हमें सुखी करें। (ते) = वे (यं द्विष्मः) = जिसे हम प्रीति नहीं कर पाते (यः च नः द्वेष्टि) = और जो हमारे साथ द्वेष करता है (तम्) = उसे (एषाम्) = इन अधिकारियों के (जम्भे) = दंष्ट्राकराल न्याय के जबड़े में (दध्मः) = स्थापित करते हैं, वे ही इन्हें उचित दण्ड देते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - राजा सूर्य की भाँति सर्वत्र प्रकाश फैलानेवाला हो, रोगकृमियों के नाश के लिए सफ़ाई का प्रबन्ध करे, सूर्यकिरणें जैसे जल को ले जाती हैं, यह भी थोड़ा-थोड़ा कर ले। इसके कर्मचारी स्वयं क्रियाशील हों और प्रजा में भी क्रियाशीलता की प्रवृत्ति को पैदा करें।

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