यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 62
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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प्रोथ॒दश्वो॒ न यव॑सेऽवि॒ष्यन्य॒दा म॒हः सं॒वर॑णा॒द्व्यस्था॑त्। आद॑स्य॒ वातो॒ऽअनु॑ वाति शो॒चिरध॑ स्म ते॒ व्रज॑नं कृ॒ष्णम॑स्ति॥६२॥
स्वर सहित पद पाठप्रोथ॑त्। अश्वः॑। न। यव॑से। अ॒वि॒ष्यन्। य॒दा। म॒हः। सं॒वर॑णा॒दिति॑ स॒म्ऽवर॑णात्। वि। अस्था॑त्। आत्। अ॒स्य॒। वातः॑। अनु॑। वा॒ति॒। शो॒चिः। अध॑। स्म॒। ते॒। व्रज॑नम्। कृ॒ष्णम्। अ॒स्ति॒ ॥६२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रोथदश्वो न यवसेविष्यन्यदा महः सँवरणाद्व्यस्थात् । आदस्य वातोऽअनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनङ्कृष्णमस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रोथत्। अश्वः। न। यवसे। अविष्यन्। यदा। महः। संवरणादिति सम्ऽवरणात्। वि। अस्थात्। आत्। अस्य। वातः। अनु। वाति। शोचिः। अध। स्म। ते। व्रजनम्। कृष्णम्। अस्ति॥६२॥
विषय - संवरण से ऊपर उठना
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र में कहा था कि सब वाणियाँ उस प्रभु की महिमा का वर्धन करती हैं। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि मन्त्र का ऋषि (वसिष्ठ) = 'अपने जीवन को अत्यन्त उत्तम बनानेवाला' (प्रोथत्) = [प्रोथति: शब्दार्थ : - उ०] शब्दायते - वाणियों का उच्चारण करता है। वाणियों का उच्चारण करता हुआ उनसे प्रेरणा प्राप्त करता है और उनके अनुसार अपना आचरण बनाता हुआ अपने जीवन को उच्च बनाता है। २. (अश्वः न) = यह अश्व के समान होता है। जैसे (अश्व) = 'अश्नुते अध्वानम्' = मार्ग का व्यापन करता है, इसी प्रकार यह भी अपने कर्त्तव्य-मार्ग पर आगे और आगे बढ़ता है, कभी आलस्य नहीं करता। ३. आलस्य न करने से ही यह (यवसे) = [यु मिश्रण - अमिश्रण] अपने जीवन में गुणों का मिश्रण व दोषों का अमिश्रण करने में समर्थ होता है। ४. (अविष्यन्) = वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाता हुआ यह (यदा) = जब (महः) = उस प्रभु की पूजा करनेवाला होता है [मह पूजायाम्] तब यह (संवरणात्) = ज्ञानादि को आवृत करनेवाली कामादि वासनाओं से (व्यस्थात्) = अलग होकर ठहरता है। वासनाओं को परे फेंककर उठ खड़ा होता है। ये वासनाएँ संवरण व वृत्र हैं, यह ज्ञान पर पर्दा डाले रहती हैं। प्रभु-पूजन आरम्भ होते ही ये भाग खड़ी होती हैं। महादेव के सामने कामदेव भस्म हो जाते हैं। ५. (आत्) - अब (वातः अस्य अनुवाति) = वायु इसके अनुकूल बहती है, अर्थात् सारा वातावरण इसके लिए उत्तम होता है। अथवा '(वातः) = प्राण: [वायुः प्राणो भूत्वा] वात का अभिप्राय प्राण से है। अब जब प्राण भी उसके अनुकूल होता है, अर्थात् प्राण-साधना करके यह प्राणों को भी अनुकूल कर लेता है 'प्राणापानौ समौ कृत्वा ' प्राणापान की गति को सम कर लेता है तो (शोचिः) = यह दीप्त हो उठता है, इसका जीवन चमक जाता है। ६. हे वसिष्ठ! (अध स्म) = अब (ते व्रजनम्) = तेरी गति - चाल-ढाल (कृष्णम्) = [कर्षकम् - द०] बड़ी आकर्षक अस्ति होती है। तेरा चरित्र बड़ा सुन्दर हो जाता है।
भावार्थ - भावार्थ- वेदवाणियों का उच्चारण करते हुए जब हम उनके अनुसार आचरण करते उठ खड़े होते हैं तब वासनाओं से बच जाते हैं। उपासक बनकर वृत्र को परे फेंक हम हैं। प्राण- साधना करके अपने चरित्र को ऊँचा कर पाते हैं।
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