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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    तन्तु॑ना रा॒यस्पोषे॑ण रा॒यस्पोषं॑ जिन्व सꣳस॒र्पेण॑ श्रु॒ताय॑ श्रु॒तं जि॑न्वै॒डेनौष॑धीभि॒रोष॑धीर्जिन्वोत्त॒मेन॑ त॒नूभि॑स्त॒नूर्जि॑न्व वयो॒धसाधीं॑ते॒नाधी॑तं जिन्वाभि॒जिता॒ तेज॑सा॒ तेजो॑ जिन्व॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तन्तु॑ना। रा॒यः। पोषे॑ण। रा॒यः। पोष॑म्। जि॒न्व॒। स॒ꣳस॒र्पेणेति॑ सम्ऽस॒र्पेण॑। श्रु॒ताय॑। श्रु॒तम्। जि॒न्व॒। ऐ॒डेन॑। ओष॑धीभिः। ओष॑धीः। जि॒न्व॒। उ॒त्त॒मेनेत्यु॑त्ऽत॒मेन॑। त॒नूभिः॑। त॒नूः। जि॒न्व॒। व॒यो॒धसेति॑ वयः॒ऽधसा॑। आधी॑ते॒नेत्याऽधी॑तेन। आधी॑त॒मित्याऽधी॑तम्। जि॒न्व॒। अ॒भि॒जितेत्य॑ऽभि॒जिता॑। तेज॑सा। तेजः। जि॒न्व॒ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्तुना रायस्पोषेण रायस्पोषञ्जिन्व सँसर्पेण श्रुताय श्रुतञ्जिन्वैडेनौषधीभिरोषधीर्जिन्वोत्तमेन तनूभिस्तनूर्जिन्व वयोधसाधीतेअनाधीतञ्जिन्वाभिजिता तेजसा तेजो जिन्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तन्तुना। रायः। पोषेण। रायः। पोषम्। जिन्व। सꣳसर्पेणेति सम्ऽसर्पेण। श्रुताय। श्रुतम्। जिन्व। ऐडेन। ओषधीभिः। ओषधीः। जिन्व। उत्तमेनेत्युत्ऽतमेन। तनूभिः। तनूः। जिन्व। वयोधसेति वयःऽधसा। आधीतेनेत्याऽधीतेन। आधीतमित्याऽधीतम्। जिन्व। अभिजितेत्यऽभिजिता। तेजसा। तेजः। जिन्व॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    ११. (रायस्पोषेण) = इस संसार में तू रायस्पोष के हेतु से, धन के पोषण के लिए भेजा गया है। इस धन के बिना लोकयात्रा चलना सम्भव नहीं, अतः तू (तन्तुना) = कर्मतन्तु के विस्तार के द्वारा (रायस्पोषं जिन्व) = धन के पोषण को प्राप्त कर । तू पुरुषार्थ से धनार्जन कर। १२. धन के साथ तू श्रुताय-शास्त्र- श्रवण व ज्ञान प्राप्ति के लिए भी उद्दिष्ट हुआ है, अत: तू (संसर्पेण) = सदा विद्यावृद्धों के समीप जाने से (श्रुतं जिन्व) = अपने शास्त्र - ज्ञान को बढ़ानेवाला बन। ‘श्रेष्ठों को प्राप्त करके ज्ञानी बनो'- इस बात को तू भूलना नहीं । १३. (ओषधीभिः) = इस संसार में तुझे ओषधियों के ही सेवन का आदेश है, अतः (ऐडेन) = उन ओषधियों के गुण-स्तवन के द्वारा [ आ-ईड् स्तुतौ = ऋच्], अर्थात् उनके गुणधर्मों के ज्ञान के साथ (ओषधीः जिन्व) = तू ओषधियों को प्राप्त हो । मांसाहार बुद्धि को राजस् बनाकर ज्ञान को विकृत कर देता है। १४. (तनूभिः) = शक्तियों के विस्तार [तन् विस्तारे] के हेतु तुझे यह जन्म मिला है, अतः (उत्तमेन) = [ उद्गतं तमो यस्मात् - म० ] तमोगुणरहित अन्नादि के सेवन से (तनूः जिन्व) = शक्तियों के विस्तार को प्राप्त हो। १५. (अधीतेन) = अध्ययन के हेतु तुझे यह मानव जीवन मिला है, अतः (वयोधसा) = [ वयो दधाति पुष्णाति] आयुष्य के पोषक अन्न के सेवन से (अधीतं जिन्व) = अध्ययन को प्राप्त हो। आयुष्य का स्थापक अन्न तुझे दीर्घजीवी बनाकर दीर्घकाल तक अध्ययन के योग्य बनाएगा । १६. (तेजसा) = तेज के हेतु तुझे यह जीवन मिला है, अत: (अभिजिता) = अन्तरिन्द्रिय मन व बाह्येन्द्रियों के विजय से पूर्ण जितेन्द्रिय होकर (तेज: जिन्व) = तू तेज प्राप्त कर ।

    भावार्थ - भावार्थ- मानव जीवन को प्राप्त करके हम 'धन, ज्ञान [श्रुत] सात्त्विक अन्न, शक्ति-विस्तार, अध्ययन व तेज' को सिद्ध करने के लिए यत्नशील हों।

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