यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 33
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
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विश्व॑स्य दू॒तम॒मृतं॒ विश्व॑स्य दू॒तम॒मृत॑म्। स यो॑जतेऽअरु॒षा वि॒श्वभो॑जसा॒ स दु॑द्रव॒त् स्वाहुतः॥३३॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑स्य। दू॒तम्। अ॒मृत॑म्। विश्व॑स्य। दू॒तम्। अ॒मृत॑म्। सः। यो॒ज॒ते॒। अ॒रु॒षा। वि॒श्वभो॑ज॒सेति॑ वि॒श्वऽभो॑जसा। सः। दु॒द्र॒व॒त्। स्वा᳖हुत॒ इति॒ सुऽआ॑हुतः ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वस्य दूतममृतँविश्वस्य दूतममृतम् । स योजतेऽअरुषा विश्वभोजसा स दुद्रवत्स्वाहुतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वस्य। दूतम्। अमृतम्। विश्वस्य। दूतम्। अमृतम्। सः। योजते। अरुषा। विश्वभोजसेति विश्वऽभोजसा। सः। दूद्रुवत्। स्वाहुत इति सुऽआहुतः॥३३॥
विषय - विश्व का दूत
पदार्थ -
१. वे प्रभु (विश्वस्य दूतम्) = [दूतः जवतेर्वा द्रवतेर्वा-वारयतेर्वा - नि० ५।१] सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाले हैं, सम्पूर्ण संसार के सञ्चालक हैं, सबके कष्टों व अज्ञानों का निवारण करनेवाले हैं। (अमृतम्) = इस प्रकार अमृतत्व को देनेवाले हैं। २. वे प्रभु सचमुच ही (विश्वस्य दूतम्) = विश्व के प्रेरक हैं (अमृतम्) = अमर प्रेरक हैं। ३. वे हमारे इन शरीररूप रथों में (अरुषा) = [अकोपनौ] क्रोधशून्य, अर्थात् सरल व (विश्वभोजसा) = सबका पालन करनेवाले ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को योजते-जोड़ते हैं। कर्मेन्द्रियाँ अरुष हैं 'ऋच्छति अध्वानम्'= ये सरलता से मार्ग पर चल रही हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ प्रत्येक वस्तु का ज्ञान देकर पालन करनेवाली हैं । ४. (सः) = वे प्रभु (स्वाहुतः) = [शोभनप्रकारेण हुतः - उ०] उत्तमता से आत्मार्पण किया हुआ अथवा [शोभनाह्वान :- द०] उत्तमता से पुकारा हुआ (दुद्रवत्) = शीघ्रता से प्राप्त होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें व उसे पुकारें तो प्रभु सहायता के लिए सदा उपस्थित होते हैं। वे हमारे शरीर रथ में शीघ्रता से मार्ग का व्यापन करनेवाले व ज्ञान-प्रकाश द्वारा पालक इन्द्रियाश्वों को जोतते हैं।
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