यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 57
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - शिशिरर्त्तुर्देवता
छन्दः - स्वराडुत्कृतिः
स्वरः - षड्जः
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तप॑श्च तप॒स्यश्च॑ शैशि॒रावृ॒तूऽअ॒ग्नेर॑न्तःश्ले॒षोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽइ॒मे। शै॒शि॒रावृ॒तूऽअ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽइन्द्र॑मिव दे॒वाऽअ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥५७॥
स्वर सहित पद पाठतपः॑। च॒। त॒प॒स्यः᳖। च॒। शै॒शि॒रौ। ऋ॒तू इत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मे इती॒मे। शै॒शि॒रौ। ऋ॒तू इत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒सम्ऽवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे इति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥५७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषोसि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पम्पाऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे शैशिरावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवा अभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तपः। च। तपस्यः। च। शैशिरौ। ऋतू इत्यृतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। इमे इतीमे। शैशिरौ। ऋतू इत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिसम्ऽविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवे इति ध्रुवे। सीदतम्॥५७॥
विषय - तप+तपस्य= शैशिरौ ऋतू
पदार्थ -
१. पति-पत्नी को चाहिए कि वे (तपः च) = [तप दीप्तौ] ज्ञान से दीप्त होने का प्रयत्न करें। जैसे सूर्य: तपति सूर्य अपने प्रकाश से चमकता है, इसी प्रकार ये ज्ञान की दीप्ति से चमकनेवाले हों । २. (तपस्यः च) [तपसि साधुः] = उत्तम तपस्यावाले हों । उत्तम तपस्या वही है जो शरीर को पीड़ित न करके की गई है। 'ब्रह्मचर्य' शारीरिक तप है तो 'मधुर भाषण वाणी का तथा 'मनःप्रसाद' मन का। इन तपों में वे अग्रणी बनने का प्रयत्न करें । ३. (शैशिरौ) [शश प्लुतगतौ] = ये दोनों द्रुत गतिवाले हों। इनका जीवन क्रियाशील व स्फूर्तिमय हो । (ऋतू) = ये बड़ी नियमित गतिवाले हों। ऋतुओं के आने की भाँति ये अपने सब कार्यों को समय पर करनेवाले हों। ४. (अग्नेः) = उस प्रभु का (अन्तः श्लेषः असि) = हृदयदेश में आलिङ्गन करनेवाला तू बनता है। ५. (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर दोनों ही (कल्पेताम्) = सामर्थ्यवाले हों । ६. इसके लिए (आप:) = जल तथा (ओषधयः) = ओषधियाँ (कल्पन्ताम्) = हमें शक्तिशाली बनाएँ। जलों व ओषधियों का सेवन हमारे मस्तिष्क व शरीर को उत्तम व सशक्त बनाता है । ७. (अग्नयः) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियाँ (मम ज्यैष्ठ्याय सव्रता:) = मेरी ज्येष्ठता के लिए समानरूप से व्रत धारण किये हुए (पृथक्) = अलग-अलग, क्रमशः पाँच, आठ व चौबीस वर्ष तक (कल्पन्ताम्) = मेरे जीवन को सामर्थ्य - सम्पन्न करने में लगे रहें । ८. मेरे 'माता-पिता व आचार्य' ही क्या, (ये अग्नयः) = जो भी अग्नियाँ (इमे) = इन (द्यावापृथिवी अन्तरा) = द्युलोक व पृथिवीलोक के बीच में है, वे सब (समनसः) = समान मनवाली हों। सबका एक ही ध्येय हो कि आनेवाली पीढ़ी के जीवन को ज्येष्ठता तक पहुँचाना है। ९. इस प्रकार इन कर्मों से जिनके जीवन का निर्माण किया गया है वे (शैशिरौ ऋतू) = द्रुत गतिवाले तथा बड़ी नियमित गतिवाले होते हैं। १०. (अभिकल्पमानाः) = ये शारीरिक व बौद्धिक दोनों ही सामर्थ्यो का सम्पादन करते हैं । इन्द्रम् इव इन्द्र के समान बनते हैं, इन्द्रियों के अधिष्ठाता होते हैं। तभी तो (देवाः) = सब दिव्य गुण (अभिसंविशन्तु) = इन्हें प्राप्त होते हैं। ११. इन पति-पत्नी से कहते हैं कि (तया देवतया) = उस देवाधिदेव परमात्मा के साथ, अर्थात् उसकी उपासना करते हुए (अङ्गिरस्वत्) = एक-एक अङ्ग में रसवाले बनकर, अर्थात् शक्ति से परिपूर्ण होकर (ध्रुवे सीदतम्) = इस घर में ध्रुव होकर रहो।
भावार्थ - भावार्थ- पति-पत्नी ज्ञान से चमकें, उत्तम तपस्वी हों। तीव्र गतिवाले, अर्थात् सदा क्रियाशील और बड़ी नियमित गतिवाले हों।
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