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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - भूरिक् आर्षी पङ्क्ति स्वरः - धैवतः
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    ये दे॑वासो दि॒व्येका॑दश॒ स्थ पृ॑थि॒व्यामध्येका॑दश॒ स्थ। अ॒प्सु॒क्षितो॑ महि॒नैका॑दश॒ स्थ ते दे॑वासो य॒ज्ञमि॒मं जु॑षध्वम्॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॑वा॒सः॒। दि॒वि। एका॑दश। स्थ। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। एका॑दश। स्थ। अप्सु॒क्षित॒ इत्य॑प्सु॒ऽक्षितः॑। म॒हि॒ना। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमथ्जुषध्वम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवासः। दिवि। एकादश। स्थ। पृथिव्याम्। अधि। एकादश। स्थ। अप्सुक्षित इत्यप्सुऽक्षितः। महिना। एकादश। स्थ। ते। देवासः। यज्ञम्। इमम्। जुषध्वम्॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र की भावना को जीवन में अनूदित करके जब मनुष्य अपने जीवन को पवित्र व यज्ञमय बनाता है तब वह इस प्रकार प्रार्थना करने का अधिकारी होता है कि— १. ( ये ) = जो ( दिवि ) = द्युलोक में—मस्तिष्क में ( एकादश ) = ग्यारह ( देवासः स्थ ) = देव हो और ( पृथिव्याम् अधि ) = इस पृथिवी पर, स्थूलशरीर में, ( एकादश स्थ ) = जो ग्यारह देव हो तथा ( महिना ) = [ महिम्ना ] अपनी महिमा से ( अप्सुक्षितः ) = अन्तरिक्ष में, हृदयाकाश में, रहनेवाले ( एकादश स्थ ) = ग्यारह देव हो, ( ते देवासः ) = वे सब देव ( इमं यज्ञम् ) = मेरे इस यज्ञमय जीवन का ( जुषध्वम् ) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो। 

    २. मेरा यह जीवन यज्ञमय हो और इसमें सब देवों का निवास हो। वस्तुतः जब हमारा जीवन देवों का निवासस्थान बनता है तभी यह परमात्मा का भी निवासस्थान बनने के योग्य होता है। उस महादेव के आने के लिए पहले देवों का आना आवश्यक है। देवों का आना महादेव के आने की तैयारी है। 

    ३. द्युलोक के देवों का मुखिया सूर्य है। मेरे मस्तिष्करूप द्युलोक में भी ज्ञान-सूर्य का उदय हो। अन्तरिक्ष लोक के देवों का मुखिया वायु व विद्युत् हैं। मेरा हृदय भी वायुवत् निरन्तर क्रियाशीलता के संकल्प से भरा हुआ हो तथा सब वासनाओं को विद्युत् की तरह छिन्न-भिन्न करनेवाला हो। पृथिवीलोक में देवों का मुखिया ‘अग्नि’ है। मेरा शरीर भी अग्नि की उष्णतावाला हो। एवं, सब देवों से युक्त होकर मैं सचमुच जीवन को यज्ञ का रूप दे डालूँ और यज्ञमय बनकर प्रभु का निवासस्थान बन जाऊँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — मेरा जीवन यज्ञरूप हो। यह देवों का आश्रम बने और प्रभु को प्राप्त करनेवाला हो।

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