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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 10
    ऋषिः - त्रिसदस्युर्ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    रा॒या व॒यꣳ स॑स॒वासो॑ मदेम ह॒व्येन॑ दे॒वा यव॑सेन॒ गावः॑। तां धे॒नुं मि॑त्रावरुणा यु॒वं नो॑ वि॒श्वाहा॑ धत्त॒मन॑पस्फुरन्तीमे॒ष ते॒ योनि॑र्ऋता॒युभ्यां॑ त्वा॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒या। व॒यम्। स॒स॒वास॒ इति॑ सस॒ऽवासः॑। म॒दे॒म॒। ह॒व्ये॑न। दे॒वाः। यव॑सेन। गावः॑। ताम्। धे॒नुम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। यु॒वम्। नः॒। वि॒श्वाहा॑। ध॒त्त॒म्। अन॑पस्फुरन्ती॒मित्यन॑पऽस्फुरन्तीम्। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। ऋ॒ता॒युभ्या॑म्। ऋ॒त॒युभ्या॑मित्यृ॑तयुऽभ्या॑म्। त्वा॒ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राया वयँ ससवाँसो मदेम हव्येन देवा यवसेन गावः । तान्धेनुम्मित्रावरुणा युवन्नो विश्वाहा धत्तमनपस्फुरन्तीमेष ते योनिरृतायुभ्यान्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    राया। वयम्। ससवास इति ससऽवासः। मदेम। हव्येन। देवाः। यवसेन। गावः। ताम्। धेनुम्। मित्रावरुणा। युवम्। नः। विश्वाहा। धत्तम्। अनपस्फुरन्तीमित्यनपऽस्फुरन्तीम्। एषः। ते। योनिः। ऋतायुभ्याम्। ऋतयुभ्यामित्यृतयुऽभ्याम्। त्वा॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र की भावना के अनुसार जब हम सचमुच मित्र व वरुण बनकर प्रभु के सच्चे उपासक बनते हैं तब प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘त्रसदस्यु’ बनते हैं। त्रस = डरते हैं दस्यु = दुष्टभाव जिससे। जिसमें आसुर वृत्तियाँ बिल्कुल नहीं होतीं, ऐसे त्रसदस्यु बनकर ( वयम् ) = हम ( राया ) = धन से ( ससवांसः ) = संभक्त हुए-हुए, अर्थात् संविभागपूर्वक धन को प्राप्त हुए-हुए ( मदेम ) = इस प्रकार आनन्द अनुभव करें जैसेकि ( देवाः ) = देव ( हव्येन ) = हव्य पदार्थों से प्रसन्न होते हैं और ( गावः ) = गौ आदि पशु ( यवसेन ) = अपने चारे [ fodder ] से प्रसन्न होते हैं। अथवा जब हम धन प्राप्त करें तो उस धन में से देवताओं को भी हव्य प्राप्त हो और गौवों को भी यवस प्राप्त हो। हमारे धन में देवों व गवादि पशुओं का भी भाग हो। यही देवयज्ञ व बलिवैश्वदेव यज्ञ कहलाते हैं। 

    २. प्रभु इन मित्र और वरुण बननेवालों से कहते हैं कि हे ( मित्रावरुणा ) = स्नेह करनेवाले व द्वेष को दूर भगाानेवाले! ( युवम् ) = तुम ( नः तां धेनुम् ) = हमारी वेदवाणीरूप गौ को ( अनपस्फुरन्तीम् ) = मन में फुरती हुई को ( विश्वाहा ) = सदा ( धत्तम् ) = धारण करो। तुम्हें वेदवाणी स्पष्ट हो। तुम वेदवाणीरूप धेनु के ज्ञानदुग्ध का पान करनेवाले बनो। 

    ३. इस वाणी के स्फुरण के लिए आवश्यक है कि हम सोम की रक्षा करनेवाले बनें, अतः प्रभु कहते हैं कि हे सोम! ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरी योनि है, उत्पत्ति व निवासस्थान है। इस शरीर में ही तूने रहना है। ( त्वा ) = तुझे ( ऋतायुभ्याम् ) = ऋत और आयु के लिए इस शरीर में स्थपित करता हूँ। शरीर में ‘सब क्रियाएँ ठीक-ठीक चलें और दीर्घ जीवन प्राप्त हो’ इसीलिए सोम का उत्पादन हुआ है। ऋत और आयु शब्द मित्र और वरुण के लिए भी प्रयुक्त होते हैं, अतः मित्र और वरुण के लिए तुझे स्थापित करता हूँ। [ मित्राः ऋतं वरुण एव वायुः—श० ४।१।४।१० ] अथवा ऋत को चाहनेवाले पति-पत्नी के लिए तुझे स्थापित करता हूँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — सोमरक्षा द्वारा हमारा जीवन ऋतमय हो और हम दीर्घायुष्य प्राप्त करें।

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