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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 48
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - आर्षी उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    को॑ऽदा॒त् कस्मा॑ऽअदा॒त् कामो॑ऽदा॒त् कामा॑यादात्। कामो॑ दा॒ता कामः॑ प्रतिग्रही॒ता कामै॒तत्ते॑॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। अ॒दा॒त्। कस्मै॑। अ॒दा॒त्। कामः॑। अ॒दा॒त्। कामा॑य। अ॒दा॒त्। कामः॑। दा॒ता। कामः॑। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒तेति॑ प्रतिऽग्रही॒ता। काम॑। ए॑तत्। ते॒ ॥४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को दात्कस्मा ऽअदात्कामो दात्कामायादात् । कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतत्ते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। अदात्। कस्मै। अदात्। कामः। अदात्। कामाय। अदात्। कामः। दाता। कामः। प्रतिग्रहीतेति प्रतिऽग्रहीता। काम। एतत्। ते॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 48
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र में दान का महत्त्व सुव्यक्त है। जुहोत प्र तिष्ठत इस वेदवाक्य के अनुसार मनुष्य देता है और प्रतिष्ठा को पाता है। दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते = देनेवालों की कभी निन्दा नहीं होती। ‘दान देने पर यह प्रतिष्ठा कहीं दाता को गर्वयुक्त न कर दे’, इसलिए समाप्ति पर कहते हैं कि हे मनुष्य! तू कभी यह मत सोचना कि तू देनेवाला है, देनेवाला तो वह सुखस्वरूप परमेश्वर ही है। ( कः अदात् ) = सुखस्वरूप परमेश्वर देता है। ( कस्मै अदात् ) = सुख के लिए ही देता है। प्रभु देते इसलिए हैं कि हमारा जीवन सुखी हो सके। जीवन के लिए आवश्यक सब वस्तुओं के प्राप्त हो जाने से सु-ख = सब इन्द्रियाँ स्वस्थ बनी रहें। 

    २. ( कामः ) = [ Supreme Being ] सभी से कामना किया जानेवाला वह प्रभु ही [ काम्यते ] ( अदात् ) = देता है। ( कामाय अदात् ) = प्रभु इसलिए देते हैं कि हम उस प्रभु को पा सकें। यह पंक्ति विचित्र अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु इसमें वह मौलिक सत्य निहित है जो ‘भूखे भजन न होई’ इन शब्दों में कवियों से व्यक्त किया गया है। अधिक धन मनुष्य को मूढ़ बनानेवाला हो सकता है, पर धनाभाव तो अवश्य मूढ़ बना ही देता है। 

    ३. ( कामः दाता ) = वे प्रभु ही दाता हैं। ( कामः ) = प्रभु की कामना करनेवाला जीव ( प्रतिग्रहीता ) = लेनेवाला है। 

    ४. ( काम ) = हे संसार की सर्वोच्च सत्तारूप प्रभो! ( एतत् ते ) = यह सब दान आपका ही है। यह मेरा नहीं। मैं सदा लेनेवाला ही हूँ, अतः मैं क्या दान का गर्व करूँ। यह तो मेरे माध्यम से आप ही के द्वारा हो रहा है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम दान दें, परन्तु उस दान का हमें गर्व न हो, क्योंकि वस्तुतः यह दानादि उत्तम कार्य हमारे माध्यम से उस प्रभु द्वारा ही किये जा रहे होते हैं।

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