यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 32
ऋषिः - त्रिशोक ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - आर्षी गायत्री,आर्ची उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः, षड्जः
3
आ घा॒ऽअ॒ग्निमि॑न्ध॒ते स्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। येषा॒मिन्द्रो॒ युवा॒ सखा॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्यग्नी॒न्द्राभ्यां॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑रग्नी॒न्द्राभ्यां॑ त्वा॥३२॥
स्वर सहित पद पाठआ। घ॒। ये। अ॒ग्निम्। इ॒न्ध॒ते। स्तृ॒णन्ति॑। ब॒र्हिः। आ॒नु॒षक्। येषा॑म्। इन्द्रः॑। युवा॑। सखा॑। उ॒पा॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒ग्नी॒न्द्राभ्या॑म्। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। अ॒ग्नी॒न्द्राभ्या॑म्। त्वा॒ ॥३२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घा ये अग्निमिन्धते स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् । येषामिन्द्रो युवा सखा । उपयामगृहीतो स्यग्नीन्द्राभ्यान्त्वैष ते योनिरग्नीन्द्राभ्यां त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। घ। ये। अग्निम्। इन्धते। स्तृणान्ति। बर्हिः। आनुषक्। येषाम्। इन्द्रः। युवा। सखा। उपायामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अग्नीन्द्राभ्याम्। त्वा। एषः। ते। योनिः। अग्नीन्द्राभ्याम्। त्वा॥३२॥
विषय - त्रि-शोक
पदार्थ -
१. गत मन्त्र का ‘विश्वामित्र’ माधुर्यमय जीवन से ‘शरीर के स्वास्थ्य’, ‘मन के नैर्मल्य’ तथा ‘मस्तिष्क की उज्ज्वलता’ को सिद्ध करके ‘त्रिशोक’ बनता है, जिससे शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों ही चमकते हैं।
२. ये त्रिशोक वे होते हैं ( ये ) = जो ( घ ) = निश्चय से ( आ ) = सर्वथा ( अग्निम् ) = अग्नि को ( इन्धते ) = दीप्त करते हैं, अर्थात् नियमपूर्वक अग्निहोत्र करते हैं और प्रभु के प्रकाश को अपने में दीप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
३. ( ये ) = जो ( आनुषक् ) = निरन्तर ( बर्हिः ) = वासनाशून्य हृदय को ( स्तृणन्ति ) = प्रभु के आसन के रूप में बिछाते हैं। यह निर्वासन हृदय ही प्रभु का ‘कुशासन’ बनता है।
४. त्रिशोक वे होते हैं ( येषाम् ) = जिनका ( इन्द्रः ) = ईश्वर ( युवा ) = [ मिश्रण-अमिश्रण ] बुराइयों का अमिश्रण करके अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाला होता है और इस प्रकार ( सखा ) = सच्चा मित्र होता है।
५. त्रिशोक इस मित्र से कहता है कि ( उपयामगृहीतः असि ) = आप उपासना द्वारा धारित यम-नियमों से गृहीत होते हो। ( अग्नीन्द्राभ्यां त्वा ) = मैं प्रकाश व शक्ति के लिए आपको स्वीकार करता हूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह मेरा हृदय तेरा निवास-स्थान है। ( अग्नीन्द्राभ्यां त्वा ) = प्रकाश व शक्ति के लिए मैं आपको स्वीकार करता हूँ।
६. पिछले मन्त्र में ‘इन्द्राङ्गिनभ्यां’ था, प्रस्तुत मन्त्र में ‘अग्नीन्द्राभ्यां’ है। यह आगे-पीछे करके लिखना इस बात का सूचक है कि ‘शक्ति व प्रकाश’ उतने ही महत्त्व के हैं जितने कि ‘प्रकाश व शक्ति’। प्रकाश व शक्ति दोनों ही समानरूप से इष्ट हैं।
भावार्थ -
भावार्थ — [ क ] मैं अग्निहोत्र करूँ तथा प्रभु का ध्यान भी। [ ख ] हृदय को वासनाशून्य बनाऊँ। [ ग ] प्रभु की मित्रता को प्राप्त करूँ। [ घ ] इस प्रभु को मित्र बनाकर हम विश्वबन्धुत्व की भावना का आनन्द लें।
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