यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 37
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,विराट आर्ची पङ्क्ति
स्वरः - धैवतः
1
स॒जोषा॑ऽइन्द्र॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्। ज॒हि शत्रूँ॒२रप॒ मृधो॑ नुद॒स्वाथाभ॑यं कृणुहि वि॒श्वतो॑ नः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते॥३७॥
स्वर सहित पद पाठस॒जोषा॒ इ॒ति॑ स॒ऽजोषाः॑। इ॒न्द्र॒। सग॑ण इति॒ सऽग॑णः। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। शू॒र॒। वि॒द्वान्। ज॒हि। शत्रू॑न्। अप॑। मृधः॑। नु॒द॒स्व॒। अथ॑। अ॒भय॑म्। कृ॒णु॒हि॒। वि॒श्वतः॑। नः॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३७॥
स्वर रहित मन्त्र
सजोषाऽइन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमम्पिब वृत्रहा शूर विद्वान् । जहि शत्रूँरप मृधो नुदस्वाथाभयङ्कृणुहि विश्वतो नः । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ॥
स्वर रहित पद पाठ
सजोषा इति सऽजोषाः। इन्द्र। सगण इति सऽगणः। मरुद्भिरिति मरुत्ऽभिः। सोमम्। पिब। वृत्रहेति वृत्रऽहा। शूर। विद्वान्। जहि। शत्रून्। अप। मृधः। नुदस्व। अथ। अभयम्। कृणुहि। विश्वतः। नः। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते॥३७॥
विषय - सेनापति
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के राजा के साथ मिलकर कार्य करनेवाला सेनापति है। राजा और सेनापति राष्ट्र के मुख्य अधिकारी हैं। आन्तरव्यवस्था का मुख्य दायित्व राजा पर है तो राष्ट्र की बाह्य शत्रुओं से रक्षा करने के लिए सेनापति ने सेना को सन्नद्ध रखना है। यह सेनापति भी जितेन्द्रिय होना चाहिए, अतः कहते हैं कि ( इन्द्र ) = हे शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जितेन्द्रिय सेनापते! तू ( सजोषाः ) = राजा के साथ प्रीतिपूर्वक राष्ट्र की सेवा करनेवाला हो [ जुषी प्रीतिसेवानयोः ]। ( सगणः ) = अपने गणों के साथ, अपने सैन्यगणों के साथ ( मरुद्भिः ) = प्राणों की साधना के द्वारा ( सोमं पिब ) = तू सोम का पान करनेवाला हो। सोमशक्ति को शरीर में सुरक्षित करनेवाला हो ( वृत्रहा ) = ज्ञान के आवरणभूत काम को तू नष्ट करनेवाला हो। शूर ( विद्वान् ) = तू ज्ञानी हो, परन्तु तेरा ज्ञान शूरता से युक्त हो। तू अपने ज्ञान को शूरता से विशिष्ट करनेवाला हो।
२. ( शत्रून् जहि ) = राष्ट्र के शत्रुओं की तू हिंसा कर। ( मृधः ) = क़ातिलों को ( अपनुदस्व ) = दूर भगानेवाला हो। ऐसी व्यवस्था करके ( अथ ) = अब ( नः ) = हमें ( विश्वतः ) = सब ओर से ( अभयम् ) = निर्भय ( कृणुहि ) = कीजिए।
३. ( उपयामगृहीतः असि ) = हे सेनापते! तू भी यम-नियमों से युक्त जीवनवाला हो। ( त्वा ) = तुझे ( मरुत्वते इन्द्राय ) = प्रशस्त प्राणोंवाले जितेन्द्रिय पुरुष के लिए हम चाहते हैं, अर्थात् तू प्राणसाधना करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष हो। ( एषः ते योनिः ) = यह राष्ट्र ही तेरा घर है। ( इन्द्राय त्वा मरुत्वते ) = तुझे हम इसलिए स्वीकार करते हैं कि हम भी प्राणसाधनावाले जितेन्द्रिय पुरुष बन सकें।
भावार्थ -
भावार्थ — राजा की भाँति सेनापति भी, प्राणसाधाना करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष हो। यही राष्ट्र की उत्तमता से रक्षा कर सकेगा।
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