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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् आर्षी जगती स्वरः - निषादः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्याग्रय॒णोऽसि॒ स्वाग्रयणः। पा॒हि य॒ज्ञं पा॒हि य॒ज्ञप॑तिं॒ विष्णु॒स्त्वामि॑न्द्रि॒येण॑ पातु॒ विष्णुं त्वं पा॑ह्य॒भि सव॑नानि पाहि॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒ग्र॒य॒णः। अ॒सि॒। स्वा॑ग्रयण॒ इति॒ सुऽआग्रयणः। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽपतिम्। विष्णुः॑। त्वाम्। इ॒न्द्रि॒येण॑। पा॒तु॒। विष्णु॑म्। त्वम्। पा॒हि॒। अ॒भि। सव॑नानि। पा॒हि॒ ॥२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतोस्याग्रयणो सि स्वाग्रयणः पाहि यज्ञम्पाहि यज्ञपतिँविष्णुस्त्वामिन्द्रियेण पातु विष्णुन्त्वम्पाह्यभि सवनानि पाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। आग्रयणः। असि। स्वाग्रयण इति सुऽआग्रयणः। पाहि। यज्ञम्। पाहि। यज्ञम्। पाहि। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। विष्णुः। त्वाम्। इन्द्रियेण। पातु। विष्णुम्। त्वम्। पाहि। अभि। सवनानि। पाहि॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 20
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र के तेतीस देवों का अधिष्ठान बननेवाले व्यक्ति के लिए कहते हैं कि तू ( उपयामगृहीतः असि ) = प्रभु-उपासना के द्वारा यम-नियमों को धारण करनेवाला बना है। 

    २. ( आग्रयणः असि ) = [ अग्रे अयनं यस्य ] तू अग्रगतिवाला है ( सु आग्रयणः ) = बड़ी उत्तमता से आगे बढ़नेवाला है। 

    ३. तू अपने जीवन में ( यज्ञं पाहि ) = यज्ञ की रक्षा कर। तेरा जीवन यज्ञमय बना रहे। 

    ४. ( यज्ञपतिं पाहि ) = तू यज्ञों के पालक प्रभु की रक्षा करनेवाला बन। प्रभु की रक्षा का अभिप्राय यह है कि तू इन यज्ञों को सिद्ध करके प्रभु को भूल न जाए। ‘यज्ञपति विष्णु ही हैं’ तूने इस बात को भूलना नहीं। 

    ५. नहीं भूलने पर ( विष्णुः ) = सब यज्ञों के धारक प्रभु ( त्वाम् ) = तुझे ( इन्द्रियेण ) = [ इन्द्रियं वीर्यम् ] शक्ति से ( पातु ) = रक्षित करते हैं। 

    ६. इसलिए ( त्वम् ) = तू ( विष्णुं पाहि ) = उस प्रभु की रक्षा कर। उस प्रभु को कभी भूल नहीं। 

    ७. प्रभु को न भूलता हुआ तू शक्ति-सम्पन्न बनेगा और शक्ति-सम्पन्न बनकर ( सवनानि ) = यज्ञों को ( अभिपाहि ) =  अन्दर-बाहर दोनों ओर सुरक्षित कर। बाहर के यज्ञ ‘द्रव्ययज्ञ’ हैं, अन्दर के यज्ञ ‘ज्ञानयज्ञ’। तू दोनों को करनेवाला बन। ज्ञानयज्ञ उत्कृष्ट है। उसे तो करना ही है, पर द्रव्ययज्ञों की भी आवश्यकता है। द्रव्ययज्ञों से शरीर का शोधन होता है, ज्ञानयज्ञों से आत्मा का, अतः आग्रयण दोनों ही यज्ञों को करता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमारा जीवन यज्ञमय हो, परन्तु हमें उन यज्ञों का गर्व न हो जाए। ‘प्रभु ही सब यज्ञों के पति हैं’ इस बात को हम भूलें नहीं।

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