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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 12
    ऋषिः - काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी जगती,निचृत् आर्षी पङ्क्ति, स्वरः - निषादः, पञ्चमः
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    तं प्र॒त्नथा॑ पू॒र्वथा॑ वि॒श्वथे॒मथा॑ ज्ये॒ष्ठता॑तिं बर्हि॒षद॑ꣳ स्व॒र्विद॑म्। प्र॒ती॒ची॒नं वृ॒जनं॑ दोहसे॒ धुनि॑मा॒शुं जय॑न्त॒मनु॒ यासु॒ वर्ध॑से। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ शण्डा॑य त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्वी॒रतां॑ पा॒ह्यप॑मृष्टः॒। शण्डो॑ दे॒वास्त्वा॑ शुक्र॒पाः प्रण॑य॒न्त्वना॑धृष्टासि॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम्। प्र॒त्नथेति॑ प्र॒त्नऽथा॑। पू॒र्वथेति॑ पूर्वऽथा॑। वि॒श्वथेति॑ विश्वऽथा॑। इ॒मथेती॒मऽथा॑। ज्ये॒ष्ठता॑ति॒मिति॑ ज्ये॒ष्ठऽताति॑म्। ब॒र्हि॒षद॑म्। ब॒र्हि॒सद॒मिति॑ बर्हिः॒ऽसद॑म्। स्व॒र्विद॒मिति॑ स्वः॒ऽविद॑म्। प्र॒ती॒ची॒नम्। वृ॒जन॑म्। दो॒ह॒से॒। धुनि॑म्। आ॒शुम्। जय॑न्तम्। अनु॑। यासु॑। वर्द्ध॑से॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इ॑त्युपया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। शण्डा॑य। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। वी॒रता॑म्। पा॒हि॒। अप॑मृष्ट॒ इत्यप॑ऽमृष्टः। शण्डः॑। दे॒वाः। त्वा॒। शु॒क्र॒पा इति॑ शुक्र॒ऽपाः। प्र। न॒य॒न्तु॒। अना॑धृष्टा अ॒सि॒ ॥१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तम्प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिम्बर्हिषदँ स्वर्विदम् । प्रतीचीनँ वृजनन्दोहसे धुनिमाशुञ्जयन्तमनु यासु वर्धसे । उपयामगृहीतोसि शण्डाय त्वैष ते योनिर्वीरताम्पाह्यपमृष्टः शण्डो देवास्त्वा शुक्रपाः पणयन्त्वनाधृष्टासि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। प्रत्नथेति प्रत्नऽथा। पूर्वथेति पूर्वऽथा। विश्वथेति विश्वऽथा। इमथेतीमऽथा। ज्येष्ठतातिमिति ज्येष्ठऽतातिम्। बर्हिषदम्। बर्हिसदमिति बर्हिःऽसदम्। स्वर्विदमिति स्वःऽविदम्। प्रतीचीनम्। वृजनम्। दोहसे। धुनिम्। आशुम्। जयन्तम्। अनु। यासु। वर्द्धसे। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। शण्डाय। त्वा। एषः। ते। योनिः। वीरताम्। पाहि। अपमृष्ट इत्यपऽमृष्टः। शण्डः। देवाः। त्वा। शुक्रपा इति शुक्रऽपाः। प्र। नयन्तु। अनाधृष्टा असि॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र की भावना के अनुसार पूर्ण मधुर जीवन बनाने के लिए कहते हैं कि ( तम् ) = उस प्रभु को जोकि ( ज्येष्ठतातिम् ) = ज्येष्ठता का विस्तार करनेवाले हैं, उपासक के जीवन को अधिकाधिक प्रशस्त बनानेवाले हैं, ( बर्हिषदम् ) = वासनाशून्य हृदयाकाश में विराजनेवाले हैं, ( स्वर्विदम् ) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं, ( प्रतीचीनम् ) = अविद्यादि दोषों के प्रतिकूल हैं, अर्थात् अविद्यादि से हमें दूर ले-जानेवाले हैं ( वृजनम् ) = जो बलरूप हैं, अर्थात् जिसकी उपासना से उपासक शक्ति का अनुभव करता है ( धुनिम् ) = सब दोषों को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं ( आशुम् ) = शीघ्रता से कार्यसिद्धि देनेवाले हैं ( जयन्तम् ) = सदा विजयी हैं, अर्थात् हमारे कामादि शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं, उस प्रभु को ( प्रःथा ) =  प्राचीनकाल की भाँति ( पूर्वथा ) = अपने से पहले होनेवाले योगियों की भाँति ( विश्वथा ) = अन्य सब देवों की भाँति ( ईमथा ) = वर्त्तमान काल के योगियों की भाँति ( दोहसे ) = तू अपने अन्दर दोहन करता है, अर्थात् उस प्रभु की भावना को अपने अन्दर भरता है। ( अनुयासु ) = इन दोहन-क्रियाओं के अनुसार ही ( वर्धसे ) = तू बढ़ता है, जितना-जितना तू अपने में प्रभु का दोहन करता है उतना- उतना तेरा वर्धन होता है, उतना-उतना ही तू वासनाओं को जीतकर आगे बढ़ता चलता है। 

    २. उपासक के हृदयाकाश में आसीन प्रभु शरीर में उत्पादित सोमशक्ति से कहते हैं कि ( उपयामगृहीतः असि ) = तू उपासना के द्वारा धारण किये गये यम-नियमों से गृहीत होता है। ( शण्डाय त्वा ) = शमादि गुणयुक्त पुरुष के लिए मैं तुझे शरीर में उत्पन्न करता हूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरा निवासस्थान है, तूने शरीर में ही रहना है, शरीर में व्याप्त होकर तू उस पुरुष को शमादि गुणयुक्त करता है। 

    ३. ( वीरतां पाहि ) = तू इस शान्त पुरुष की वीरता की रक्षा कर। ( शण्डः ) = यह शमादि गुणयुक्त पुरुष ( अपमृष्टः ) = सब मलों के दूरीकरण से शुद्ध कर दिया जाए। ( शुक्रपाः ) = वीर्य की रक्षा करनेवाले ( देवाः ) = विद्वान् लोग ( त्वाम् ) = तुझ वीरता को ( प्रणयन्तु ) = प्रकर्षेण अपने में प्राप्त कराएँ। ( अनाधृष्टा असि ) = तू वासनाओं से धर्षित नहीं होती। वीरता के साथ सब सद्गुणों का वास है, वीरता ही virtue है। अवीरता के साथ evil आती है। वीर पुरुष कामादि से धर्षित नहीं होता।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम योगक्रियाओं द्वारा सोम की रक्षा करें। सुरक्षित सोम से हमारी वीरता बढ़े और हम वासनाओं से धर्षित न हों।

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