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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 44
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    1

    अ॒यं नो॑ऽअ॒ग्निर्वरि॑वस्कृणोत्व॒यं मृधः॑ पु॒रऽए॑तु प्रभि॒न्दन्। अ॒यं वाजा॑ञ्जयतु॒ वाज॑साताव॒यꣳ शत्रू॑ञ्जयतु॒ जर्हृ॑षाणः॒ स्वाहा॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। नः॒। अग्निः॒। वरि॒॑वः। कृ॒णो॒तु॒। अ॒यम्। मृधः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒भि॒न्दन्निति॑ प्रऽभि॒न्दन्। अ॒यम्। वाजा॑न्। ज॒य॒तु॒। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ। अ॒यम्। शत्रू॑न्। ज॒य॒तु॒। जर्हृ॑षाणः। स्वाहा॑ ॥४४॥.


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्नोऽअग्निर्वरिवस्कृणोत्वयम्मृधः पुर एतु प्रभिन्दन् । अयँ वाजाञ्जयतु वाजसातावयँ शत्रून्जयतु जर्हृषाणः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। नः। अग्निः। वरिवः। कृणोतु। अयम्। मृधः। पुरः। एतु। प्रभिन्दन्निति प्रऽभिन्दन्। अयम्। वाजान्। जयतु। वाजसाताविति वाजऽसातौ। अयम्। शत्रून्। जयतु। जर्हृषाणः। स्वाहा॥४४॥.

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र में न्याय-मार्ग से धन कमाने का उल्लेख था, वस्तुतः धन देनेवाले तो प्रभु हैं। जीव को तो प्रभु से उपदिष्ट न्याय-मार्ग पर चलते चलना है। इसी बात को इन शब्दों में कहते हैं कि ( अयं अग्निः ) = सब उन्नतियों का साधक यह प्रभु ( नः ) = हमारे लिए ( वरिवः ) = धन ( कृणोतु ) = प्राप्त करे। प्रभु हमें उन्नति के लिए आवश्यक निवास आदि को सुन्दर बनाने के लिए सब धन देनेवाले हैं। हम पुरुषार्थ नहीं छोड़ते तो प्रभु हमें धन देते ही हैं। 

    २. ( अयम् ) = ये प्रभु ही ( मृधः ) = सब हिंसकों को ( प्रभिन्दन् ) = नष्ट करते हुए ( पुरएतु ) = हमें आगे ले-चलनेवाले हों। हमारा नेतृत्व प्रभु के हाथ में हो। प्रभु नेता और मैं अनुयायी। वे सब विघ्नों को दूर कर देंगे और इस प्रकार मेरी उन्नति निर्विघ्न होगी। 

    ३. ( अयम् ) = ये प्रभु ही ( वाजसातौ ) = संग्रामों में ( वाजान् ) = अन्नों को ( जयतु ) = जीतें। इस जीवन-संग्राम में जब हम काम-क्रोधादि शत्रुओं के पराजय में व्यस्त होंगे तो हमारे खान-पान का ध्यान प्रभु करेंगे ही। 

    ४. ये प्रभु ही ( जर्हृषाणः ) = हमें अत्यन्त हर्षित करते हुए ( शत्रून् जयतु ) = हमारे शत्रुओं को जीतें। काम-क्रोधादि का विजय भी वस्तुतः मुझे क्या करना? मुझे तो बस ( स्वाहा ) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पणमात्र करना है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — सब धनों का विजय व प्रापण करानेवाले प्रभु हैं। वे ही हमें संग्रामों में विजयी बनाते हैं।

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