यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 9
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - मित्रावरुणौ देवते
छन्दः - आर्षी गायत्री,आसुरी गायत्री
स्वरः - षड्जः
2
अ॒यं वां॑ मित्रावरुणा सु॒तः सोम॑ऽऋतावृधा। ममेदि॒ह श्रु॑त॒ꣳ हव॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि मि॒त्रावरु॑णाभ्यां त्वा॥९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। वाम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। सु॒तः। सोमः॑। ऋ॒ता॒वृ॒धेत्यृ॑तऽवृधा। मम॑। इत्। इ॒ह। श्रु॒त॒म्। हव॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्। त्वा॒ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
अयँवाम्मित्रावरुणा सुतः सोमऽऋतावृधा । ममेदिह श्रुतँ हवम् । उपयामगृहीतोसि मित्रावरुणाभ्यां त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। वाम्। मित्रावरुणा। सुतः। सोमः। ऋतावृधेत्यृतऽवृधा। मम। इत्। इह। श्रुतम्। हवम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। मित्रावरुणाभ्याम्। त्वा॥९॥
विषय - मित्र + वरुण
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में ‘मधुच्छन्दा’ = माधुर्य-ही-माधुर्य को अपनानेवाला, सभी का स्नेही [ मित्र ] तथा किसी से भी द्वेष न करनेवाला [ वरुण ] बनता है। यही प्रभु का सच्चा स्तवन है। यही जीवन के आनन्द का मूल है। सच्चा स्तवन करनेवाला और आनन्द को प्राप्त करनेवाला यह ‘गृत्स-मद’ कहलाता है। ‘गृणाति+माद्यति’ = स्तुति करता है, प्रसन्न रहता है। यही सोम की रक्षा कर पाता है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि हे ( मित्रावरुणा ) = मित्र और वरुण—स्नेह करनेवाले व द्वेष का निवारण करनेवाले! इस प्रकार ( ऋतावृधा ) = अपने में ऋत का वर्धन करनेवाले! ( वाम् ) = तुम दोनों पति-पत्नी के लिए ( अयं सोमः ) = यह सोम ( सुतः ) = उत्पन्न किया गया है।
२. ( इह ) = मानव-जीवन में ( इत् ) = निश्चय से ( मम ) = मेरी ( हवम् ) = पुकार को, प्रेरणा को ( श्रुतम् ) = तुम सुनो। मुझसे प्रतिपाद्यमान सोम के महत्त्व को सुनो और इसकी रक्षा के लिए नितान्त प्रयत्नशील होओ।
३. ( उपयामगृहीतः असि ) = हे सोम! तू प्रभु-उपासन के द्वारा और यम-नियमों के द्वारा धारण किया जाता है। ( मित्रावरुणाभ्यां त्वा ) = मैं तुझे मित्र और वरुण के लिए ही उत्पन्न करता हूँ, अर्थात् इस सोम की रक्षा के लिए मित्र और वरुण बनना आवश्यक है।
भावार्थ -
भावार्थ — हम सबके साथ स्नेह करनेवाले, द्वेष से सदा दूर रहनेवाले बनकर सच्चे प्रभुभक्त बनें और प्रसन्नचित्त होकर सोमरक्षा में समर्थ हों।
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