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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - विराट ब्राह्मी जगती, स्वरः - निषादः
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    स्वाङ्कृ॑तोऽसि॒ विश्वे॑भ्यऽइन्द्रि॒येभ्यो॑ दि॒व्येभ्यः॒ पार्थि॑वेभ्यो॒ मन॑स्त्वाष्टु॒ स्वाहा॑ त्वा सुभव॒ सूर्या॑य दे॒वेभ्य॑स्त्वा मरीचि॒पेभ्यो॒ देवा॑शो॒ यस्मै॒ त्वेडे॒ तत्स॒त्यमु॑परि॒प्रुता॑ भ॒ङ्गेन॑ ह॒तोऽसौ फट् प्रा॒णाय॑ त्वा व्या॒नाय॑ त्वा॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाङ्कृ॑त॒ इति॒ स्वाम्ऽकृ॑तः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। इ॒न्द्रि॒येभ्यः॑। दि॒व्येभ्यः॑। पार्थि॑वेभ्यः। मनः॑। त्वा॒। अ॒ष्टु॒। स्वाहा॑। त्वा॒। सु॒भ॒वेति॑ सुऽभव। सूर्य्या॑य। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। म॒री॒चि॒पेभ्य॒ इति॑ मरीचि॒ऽपेभ्यः॑। देव॑। अ॒शो॒ऽइत्य॑ऽशो॒। यस्मै॑। त्वा॒। ईडे॑। तत्। स॒त्यम्। उ॒प॒रि॒प्रुतेत्यु॑परि॒ऽप्रुता। भ॒ङ्गेन॑। ह॒तः। अ॒सौ। फट्। प्रा॒णाय॑। त्वा॒। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। त्वा॒ ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाङ्कृतोसि विश्वेभ्यऽइन्द्रियेभ्यो दिव्येभ्यः पार्थिवेभ्यो मनस्त्वाष्टु स्वाहा त्वा सुभव सूर्याय । देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्यो देवाँशो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरिप्रुता भङ्गेन हतोसौ फट्प्राणाय त्वा व्यानाय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाङ्कृत इति स्वाम्ऽकृतः। असि। विश्वेभ्यः। इन्द्रियेभ्यः। दिव्येभ्यः। पार्थिवेभ्यः। मनः। त्वा। अष्टु। स्वाहा। त्वा। सुभवेति सुऽभव। सूर्य्याय। देवेभ्यः। त्वा। मरीचिपेभ्य इति मरीचिऽपेभ्यः। देव। अशोऽइत्यऽशो। यस्मै। त्वा। ईडे। तत्। सत्यम्। उपरिप्रुतेत्युपरिऽप्रुता। भङ्गेन। हतः। असौ। फट्। प्राणाय। त्वा। व्यानायेति विऽआनाय। त्वा॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र में वर्णित ( सोम ) = उस शान्तात्मा प्रभु को पाने के लिए शरीर में सोम [ वीर्य ] की रक्षा आवश्यक है, अतः प्रस्तुत मन्त्र में उसी का वर्णन करते हैं— १. ( स्वाङ्कृतोऽसि ) = तू स्वयंकृत है, अर्थात् प्रभु-निर्मित व्यवस्था के अनुसार हमारे किसी प्रयत्न के बिना तू शरीर में स्वयं उत्पन्न होता है। तू ( विश्वेभ्यः इन्द्रियेभ्यः ) = इन्द्र की सब शक्तियों के लिए उत्पन्न किया गया है [ इन्द्रिय = इन्द्र की शक्ति ]। चाहे वे शक्तियाँ ( दिव्येभ्यः ) = द्युलोक अर्थात् मस्तिष्क-सम्बन्धी हों और चाहे ( पार्थिवेभ्यः ) = वे शक्तियाँ पृथिवी अर्थात् शरीर-सम्बन्धी हों, अर्थात् इस सोम के द्वारा मस्तिष्क व शरीर दोनों का ही विकास होता है। ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, शरीर स्वस्थ होता है। 

    २. इस सोम की रक्षा से ( मनः ) = ज्ञान ( त्वा ) = तुझे ( अष्टु ) = व्याप्त करे। ( स्वाहा ) = अतः इस सोम की रक्षा के लिए तू सुन्दरता से उस प्रभु के नाम का उच्चारण कर [ सु आह ]। 

    ३. हे ( सुभव ) = उत्तम सात्त्विक अन्नों से उत्पन्न होनेवाले सोम! मैं ( सूर्याय ) =  अपने मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य के उदय के लिए ( त्वा ) = तुझे सुरक्षित करता हूँ। ( मरीचिपेभ्यः ) = ज्ञान की किरणों का पान करने के लिए मैं तुझे अपने में धारण करता हूँ। 

    ४. हे ( देव ) = सब दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले ( अंशो ) = शत्रुओं का भेदन करनेवाले सोम! ( यस्मै ) = जिस उद्देश्य से ( त्वा ईडे ) = मैं तेरी [ प्रशंसा = स्तुति ] करता हूँ ( तत् सत्यम् ) = वह मेरा उद्देश्य सत्य हो, अर्थात् मेरी वह कामना पूर्ण हो। मेरी वह कामना यह है कि तेरे ( उपरिप्रुता ) =  [ उपरि प्रवते ] ऊर्ध्व गतिवाले ( भङ्गेन ) = शत्रुमर्दक बल से ( असौ ) = वह अज्ञानरूप शत्रु ( फट् ) = झट ( हतः ) = मारा जाए, अर्थात् सोम की ऊर्ध्वगति से मुझमें वह शक्ति उत्पन्न हो कि मैं ज्ञान पर पर्दा डाल देनेवाली सब वासनाओं को नष्ट कर डालूँ। 

    ५. हे सोम! ( प्राणाय ) = मैं शरीर में प्राणशक्ति की वृद्धि के लिए ( त्वा ) = तुझे स्वीकार करता हूँ। ( व्यानाय त्वा ) = मैं तुझे व्यानशक्ति की वृद्धि के लिए स्वीकार करता हूँ। प्राणशक्ति की वृद्धि से मैं नीरोग बनूँगा, और व्यानशक्ति की वृद्धि से मैं शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर काबू पाऊँगा। ऐसा होने पर मैं वस्तुतः ‘गोतम’ प्रशस्तेन्द्रिय बनता हूँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — सोम की रक्षा से मेरे मस्तिष्क व शरीर दोनों का विकास होता है, वासना का विनाश होकर प्राण व व्यानशक्ति बढ़ती है।

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