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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - मघवा देवता छन्दः - आर्षी उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒न्तर्य॑च्छ मघवन् पा॒हि सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य राय॒ऽएषो॑ यजस्व॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒न्तः। य॒च्छ॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। पा॒हि॒। सोम॑म्। उ॒रु॒ष्य। रायः॑। आ। इषः॑। य॒ज॒स्व॒ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतो स्यन्तर्यच्छ मघवन्पाहि सोमम् । उरुष्य राय एषो यजस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अन्तः। यच्छ। मघवन्निति मघऽवन्। पाहि। सोमम्। उरुष्य। रायः। आ। इषः। यजस्व॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र में वर्णित सोम की रक्षा के लिए संयम आवश्यक है। संयम ही योग है। इस योग का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में चलता है। १. हे गोतम! तू ( उपयाम गृहीतः असि ) =  [ उपयामाः = योगनियमाः ] तू योग के नियमों से गृहीत है, अर्थात् तूने योग के नियमों का पालन किया है। इन योग-नियमों के द्वारा तू ( अन्तः यच्छ ) = इधर-उधर भटकनेवाले मन को अन्दर ही रोक। 

    २. मन के निरोध से ही तेरा जीवन वास्तविक ऐश्वर्य से युक्त होगा। उस ऐश्वर्य से युक्त होकर ( मघवन् ) = ज्ञानैश्वर्यवाले गोतम! तू ( सोमम् ) = सोम को ( पाहि ) = सुरक्षित कर। ( उरुष्य ) = इन वासनाओं को ख़ूब ही नष्ट कर [ षोऽन्तकर्मणि ] ३. वासनाओं को नष्ट करके ( रायः ) = ज्ञान-धनों को तथा ( इषः ) = प्रभु से दी जानेवाली प्रेरणाओं को तू ( आयजस्व ) = अपने साथ सङ्गत कर।

    ४. वस्तुतः योगमार्ग पर चलनेवाले जीवन का क्रम यही होता है कि [ क ] वह योग-नियमों को स्वीकार करता है [ ख ] मन का अन्दर ही निरोध करता है [ ग ] ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करके सोम की रक्षा करता है। [ घ ] वासनाओं का विनाश करता है। [ ङ ] और ज्ञान-धनों व प्रभु-प्रेरणाओं के साथ अपने को जोड़ता है। यह अन्तर्नियमन ही योग है। यही कल्याणकर है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम योग-नियमों का पालन कर मनोनिरोध करें। वासनाओं को जीतकर ज्ञान-धनों को प्राप्त करें।

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