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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 14
    सूक्त - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - चतुष्पदातिजगती सूक्तम् - विराट् सूक्त

    अ॒ग्नीषोमा॑वदधु॒र्या तु॒रीयासी॑द्य॒ज्ञस्य॑ प॒क्षावृष॑यः क॒ल्पय॑न्तः। गा॑य॒त्रीं त्रि॒ष्टुभं॒ जग॑तीमनु॒ष्टुभं॑ बृहद॒र्कीं यज॑मानाय॒ स्वरा॒भर॑न्तीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नीषोमौ॑ । अ॒द॒धु॒: । या । तु॒रीया॑ । आसी॑त् । य॒ज्ञस्य॑ । प॒क्षौ । ऋष॑य: । क॒ल्पय॑न्त: । गा॒य॒त्रीम् । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । जग॑तीम् । अ॒नु॒ऽस्तुभ॑म् । बृ॒ह॒त्ऽअ॒र्कीम् । यज॑मानाय । स्व᳡: । आ॒ऽभर॑न्तीम्॥९.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नीषोमावदधुर्या तुरीयासीद्यज्ञस्य पक्षावृषयः कल्पयन्तः। गायत्रीं त्रिष्टुभं जगतीमनुष्टुभं बृहदर्कीं यजमानाय स्वराभरन्तीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नीषोमौ । अदधु: । या । तुरीया । आसीत् । यज्ञस्य । पक्षौ । ऋषय: । कल्पयन्त: । गायत्रीम् । त्रिऽस्तुभम् । जगतीम् । अनुऽस्तुभम् । बृहत्ऽअर्कीम् । यजमानाय । स्व: । आऽभरन्तीम्॥९.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. जीवन एक यज्ञ है। इस यज्ञ की उत्तमता के लिए 'अग्नि और सोम' दोनों ही तत्त्व आवश्यक हैं। केवल अग्नितत्त्व जीवन को जलाता है। केवल सोमतत्व जीवन को एकदम ठण्डा कर देता है। दोनों का मिश्रण ही जीवन को रसमय व नौरोग बनाता है [आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म] और तभी ब्रह्म की भी प्राप्ति होती है। इसलिए (ऋषय:) = ऋषि लोग (अग्निषोमौ) = अग्नि और सोमतत्त्वों को यज्ञस्य पक्षी-जीवन यज्ञ के दो पक्षों के रूप में (कल्पयन्तः) = बनाते हुए उस स्थिति को (अदधुः) = धारण करते हैं, (या तुरीया आसीत्) = जो चतुर्थी है। 'जागरित, स्वप्न व सुषुप्ति' से ऊपर उठकर समाधि की स्थिति 'तुरीया' है। अग्नि व सोम का सम्मिश्रण ऋषियों को इस स्थिति में पहुँचने के योग्य बनाता है। २. यह वह स्थिति है जो (गायत्रीम) = [गया: प्राणा: तान्तत्रे] प्राणशक्ति का रक्षण करनेवाली है, (त्रिष्टुभम्) = [त्रिष्टुभ] काम, क्रोध व लोभ के आक्रमण को रोक [stop] देनेवाली है, (जगतीम्) = लोकहित में प्रवृत्त करनेवाली है, (अनुष्टुभम्) = प्रतिदिन प्रभुस्तवन की वृत्तिवाली है, (बृहद् अकीम्) = प्रभु की महती पूजा है, तथा (यजमानाय) = अपने साथ 'अग्नि व सोम' का सङ्गतिकरण करनेवाले यजमान के लिए [यज् सङ्गतिकरणे]( स्व: आभरन्तीम्) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाली है।

    भावार्थ -

    हमें जीवन में 'अग्नि व सोम' [विद्या व श्रद्धा, शक्ति व शान्ति, उग्रता व शीतलता] दोनों तत्वों का समन्वय करते हुए समाधि की स्थिति में पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए। यह स्थिति ही हमें प्रकाश व सुख प्राप्त कराएगी।

     

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