अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 17
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
षडा॑हुः शी॒तान्षडु॑ मा॒स उ॒ष्णानृ॒तुं नो॒ ब्रूत॑ यत॒मोऽति॑रिक्तः। स॒प्त सु॑प॒र्णाः क॒वयो॒ नि षे॑दुः स॒प्त च्छन्दां॒स्यनु॑ स॒प्त दी॒क्षाः ॥
स्वर सहित पद पाठषट् । आ॒हु॒: । शी॒तान् । षट् । ऊं॒ इति॑ । मा॒स: । उ॒ष्णान् । ऋ॒तुम् । न॒: । ब्रू॒त॒ । य॒त॒म: । अति॑ऽरिक्त: । स॒प्त । सु॒ऽप॒र्णा: । क॒वय॑: । नि । से॒दु॒: । स॒प्त । छन्दां॑सि । अनु॑ । स॒प्त । दी॒क्षा: ॥९.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
षडाहुः शीतान्षडु मास उष्णानृतुं नो ब्रूत यतमोऽतिरिक्तः। सप्त सुपर्णाः कवयो नि षेदुः सप्त च्छन्दांस्यनु सप्त दीक्षाः ॥
स्वर रहित पद पाठषट् । आहु: । शीतान् । षट् । ऊं इति । मास: । उष्णान् । ऋतुम् । न: । ब्रूत । यतम: । अतिऽरिक्त: । सप्त । सुऽपर्णा: । कवय: । नि । सेदु: । सप्त । छन्दांसि । अनु । सप्त । दीक्षा: ॥९.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 17
विषय - शातान+उष्णान
पदार्थ -
१. प्रभु ने संसार में इस काल-प्रवाह में जो ऋतुएँ बनाई हैं, उनमें (षट्) = छह (शीतान् मास: आहुः) = शीत मास कहाते हैं, (उ) = और (षट् उष्णान्) [आहुः] = छह गरमी के मास हैं। (ऋतुं नो बूत) = उस ऋतु को हमें बतलाओ तो सही (यतमः अतिरिक्त:) = जो इनसे अतिरिक्त है। वास्तव में मूल तत्व दो ही है 'सरदी और गरमी'। मानव स्वभाव में ये ही आपः, ज्योतिः' कहलाते हैं। इन्हीं को यहाँ [१.१४] 'अग्नीषोमौ' शब्द से कहा है। मनुष्य इन दोनों तत्त्वों को धारण करता है तभी इनके समन्वय में उसका जीवन पूर्ण बनता है। २. इस पूर्ण-से जीवन में (सप्त) = सात (सुपर्णाः) = [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्]-'दो कान, दो नासा-छिद्र, दो आँखें व मुख' रूप सात सुपर्ण-उत्तमता से पालन करनेवाली इन्द्रियाँ कवयः [कुवन्ति सर्वाः विद्याः] सब विद्याओं का ज्ञान देती हुई निषेदुः-शिरोदेश में निषण्ण होती हैं। [कः सप्त खानि विततर्द शीर्षणि]-इन (सप्त छन्दांसि अनु) = पापों से बचानेवाली [छादयन्ति] इन्द्रियों के अनुसार (सप्त दीक्षा:) = हम जीवनों में सात इन्द्रियों से सात व्रत ग्रहण करते हैं। इसप्रकार हम पुण्यकर्मों को ही करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ -
हम जीवन में अग्नि व सोमतत्व का समन्वय करें [गरमी सरदी]। तब हमारी सातों ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान देती हुई हमें पापों से बचाएँगी और जीवन को व्रतमय बनाएँगी।
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