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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - विराट् सूक्त

    यो अक्र॑न्दयत्सलि॒लं म॑हि॒त्वा योनिं॑ कृ॒त्वा त्रि॒भुजं॒ शया॑नः। व॒त्सः का॑म॒दुघो॑ वि॒राजः॒ स गुहा॑ चक्रे त॒न्वः परा॒चैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अक्र॑न्दयत् । स॒लि॒लम् । म॒हि॒ऽत्‍वा । योनि॑म् । कृ॒त्वा । त्रि॒ऽभुज॑म् । शया॑न: । व॒त्स: । का॒म॒ऽदुघ॑: । वि॒ऽराज॑: । स: । गुहा॑ । च॒क्रे॒ । त॒न्व᳡: । प॒रा॒चै: ॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अक्रन्दयत्सलिलं महित्वा योनिं कृत्वा त्रिभुजं शयानः। वत्सः कामदुघो विराजः स गुहा चक्रे तन्वः पराचैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अक्रन्दयत् । सलिलम् । महिऽत्‍वा । योनिम् । कृत्वा । त्रिऽभुजम् । शयान: । वत्स: । कामऽदुघ: । विऽराज: । स: । गुहा । चक्रे । तन्व: । पराचै: ॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. प्रभु वे हैं (यः) = जोकि (महित्वा) = अपनी महिमा से (सलिलम्) = इस सलिलरूपा प्रकृति को (अक्रन्दयत्) = गर्जना-सी कराते हैं-इस अणु-समुद्ररूप प्रकृति में विक्षोभ पैदा करते हैं। वे प्रभु इस (त्रिभुजम्) = सत्व, रजस्व तमरूप त्रिगुणों का पालन करनेवाली प्रकृति को (योनि कृत्वा) = घर सा बनाकर (शयान:) = निवास कर रहे हैं। यह प्रकृति प्रभु की योनि है, प्रभु इसमें गर्भ धारण करते हैं, तब यह सम्पूर्ण संसार आविर्भूत होता है। २. यह जीव उस (कामदुषः) = सब कामनाओं को पूरण करनेवाले (विराजः) = विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभु का (वत्स:) = वत्स है-पुत्र है। (सः) = वह वत्स [जीव] (पराचैः) = [परा अञ्च] बहिर्गमनों से-प्रकृति के विषयों में फंसने से (तन्वः गुहा चक्रे) = शरीररूप संवरणों [hiding places] को उत्पन्न कर लेता है। यदि जीव विषयों में न भटके तो उसे पुन: इस तनुरूप गुहा में न आना पड़े।

    भावार्थ -

    प्रभु प्रकृति को विक्षुब्ध करते हैं तभी सृष्टि उत्पन्न होती है। प्रभु इस त्रिगुणमयी प्रकृति को योनि बनाकर रह रहे हैं। जीव कामनाओं के पूरक विराट् प्रभु का वत्स है। यह विषयों में भटकने के कारण शरीररूप संवरणों [कैदखानों] को प्राप्त किया करता है।

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