अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 20
सूक्त - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
क॒थं गा॑य॒त्री त्रि॒वृतं॒ व्याप क॒थं त्रि॒ष्टुप्प॑ञ्चद॒शेन॑ कल्पते। त्र॑यस्त्रिं॒शेन॒ जग॑ती क॒थम॑नु॒ष्टुप्क॒थमे॑कविं॒शः ॥
स्वर सहित पद पाठक॒थम् । गा॒य॒त्री । त्रि॒ऽवृत॑म् । वि । आ॒प॒ । क॒थम् । त्रि॒ऽस्तुप् । प॒ञ्च॒ऽद॒शेन॑ । क॒ल्प॒ते॒ । त्र॒य॒:ऽत्रिं॒शेन॑ । जग॑ती। क॒थम् । अ॒नु॒ऽस्तुप् । क॒थम् । ए॒क॒ऽविं॒श: ॥९.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
कथं गायत्री त्रिवृतं व्याप कथं त्रिष्टुप्पञ्चदशेन कल्पते। त्रयस्त्रिंशेन जगती कथमनुष्टुप्कथमेकविंशः ॥
स्वर रहित पद पाठकथम् । गायत्री । त्रिऽवृतम् । वि । आप । कथम् । त्रिऽस्तुप् । पञ्चऽदशेन । कल्पते । त्रय:ऽत्रिंशेन । जगती। कथम् । अनुऽस्तुप् । कथम् । एकऽविंश: ॥९.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 20
विषय - गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप्
पदार्थ -
१. (कथम्) = किस अद्भुत प्रकार से (गायत्री) = [गयाः प्राणाः, तान् तत्रे] प्राणों का रक्षण (त्रिवृतं व्याप) = [त्रिषु ज्ञानकर्मोपासनेषु वर्तते] ज्ञान, कर्म व उपासना में प्रवृत्त पुरुष को व्याप्त करता है। जो भी ज्ञान, कर्म व उपासना में प्रवृत्त होगा, वह प्राणशक्ति का रक्षण कर पाएगा। (कथम्) = किस अद्धत प्रकार से (त्रिष्टुप) = काम, क्रोध, लोभ का निरोध [त्रिष्टुप्] (पञ्चदशेन कल्पते) = [आत्मा पञ्चदश: तां० १९।११।३] आत्मा को सामर्थ्यवाला बनाता है। वस्तुत: 'काम, क्रोध, लोभ' का निरोध ही आत्मा को शक्तिशाली बनाता है। २. (त्रयस्त्रिंशेन) = तेतीस देवों को अपने में स्थापित करनेवाले साधक से (कथम्) = कैसे अद्भुत रूप में (जगती) = लोकहित का कार्य होता है, और (अनुष्टुप्) = प्रतिदिन प्रभुस्तवन करनेवाला (कथम्) = कैसे (एकविंश:) = 'पाँच भूत, पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा इक्कीसवें सशक्त मन' वाला होता है। स्तोता के ये इक्कीस के-इक्कीस तत्त्व बड़े ठीक रहते हैं, अतएव वह पूर्ण स्वस्थ होता है।
भावार्थ -
'ज्ञान, कर्म व उपासन' में प्रवृत्त होकर हम प्राणों का रक्षण करें; काम, क्रोध, लोभ का निरोध करके आत्मा को प्रबल बनाएँ: अपने में दिव्य गुणों को धारण करके लोकहित में प्रवृत्त हों तथा प्रभुस्तवन करते हुए हम जीवन के धारक इक्कीस तत्वों को अपने में ठीक रक्खें।
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