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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - वह्निर्देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    अच्छा॒यमे॑ति॒ शव॑सा घृ॒तेने॑डा॒नो वह्नि॒र्नम॑सा। अ॒ग्नि स्रुचो॑ऽ अध्व॒रेषु॑ प्र॒यत्सु॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑। अ॒यम्। ए॒ति॒। शव॑सा। घृ॒तेन॑। ई॒डा॒नः। वह्निः। नम॑सा। अ॒ग्निम्। स्रुचः॑। अ॒ध्व॒रेषु॑। प्र॒यत्स्विति॑ प्र॒यत्ऽसु॑ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छायमेति शवसा घृतेनेडानो वह्निर्नमसा । अग्निँ स्रुचो अध्वरेषु प्रयत्सु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ। अयम्। एति। शवसा। घृतेन। ईडानः। वह्निः। नमसा। अग्निम्। स्रुचः। अध्वरेषु। प्रयत्स्विति प्रयत्ऽसु॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 14
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    भावार्थ -
    ( अयम् बह्निः ) यह राज्य भार को वहन करने में समर्थ पुरुष, (शवसा) बल से, (घृतेन) तेज से और (नमसा ) दुष्टों को दमन करने वाले बल से (ईडानः) स्तुति योग्य होकर (अच्छ एति) प्राप्त होता है । (अध्वरेषु प्रयत्सु) हिंसा रहित, प्रजा के पालन कार्यों के प्रारम्भ हो जाने पर (स्रुचः) स्रुवे जिस प्रकार अग्नि को उद्दीप्त करते हैं उसी प्रकार (स्रुचः) दानशील प्रजाएं अपने अंशों से (अग्निम् ) इस नायक को प्रदीप्त तेजस्वी करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वह्निः । भुरिगुष्णिक् । ऋषभः ॥

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