यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 31
वा॒युर॑ग्रे॒गा य॑ज्ञ॒प्रीः सा॒कं ग॒न्मन॑सा य॒ज्ञम्।शि॒वो नि॒युद्भिः॑ शि॒वाभिः॑॥३१॥
स्वर सहित पद पाठवा॒युः। अ॒ग्रे॒गाऽइत्य॑ग्रे॒ऽगाः। य॒ज्ञ॒प्रीरिति॑ यज्ञ॒ऽप्रीः। सा॒कम्। ग॒न्। मन॑सा। य॒ज्ञम्। शि॒वः। नि॒युद्भि॒रिति॑ नि॒युत्ऽभिः॑। शि॒वाभिः॑ ॥३१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वायुरग्रेगा यज्ञप्रीः साकङ्गन्मनसा यज्ञम् । शिवो नियुद्भिः शिवाभिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
वायुः। अग्रेगाऽइत्यग्रेऽगाः। यज्ञप्रीरिति यज्ञऽप्रीः। साकम्। गन्। मनसा। यज्ञम्। शिवः। नियुद्भिरिति नियुत्ऽभिः। शिवाभिः॥३१॥
विषय - नियुत्वान् वायु, सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ -
तू (अग्रेगाः) सबके आगे चलनेहारा, अग्रणी और (शिवः) कल्याणकारी होकर ( यज्ञप्रीः ) राष्ट्र को प्रसन्न अनुरञ्जित करके स्वयं (वायुः) वायु के समान बलवान् होकर (मनसा) अपने चित्त से (शिवाभि: नियुद्भिः साकम् ) कल्याणकारिणी, नियुक्त सेनाओं या शक्तियों और नियुक्त पुरुषों सहित (यज्ञम् आ गहि) तू यज्ञ अर्थात् व्यवस्थित राष्ट्र या राष्ट्रपति के माननीय पद को प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अजमीढः । वायुः । गायत्री । षड्जः ॥
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