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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    समा॑स्त्वाऽग्न ऋ॒तवो॑ वर्द्धयन्तु संवत्स॒राऽऋष॑यो॒ यानि॑ स॒त्या। सं दि॒व्येन॑ दीदिहि रोच॒नेन॒ विश्वा॒ऽ आ भा॑हि प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    समाः॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। ऋ॒तवः॑। व॒र्द्घ॒य॒न्तु। सं॒व॒त्स॒राः। ऋष॑यः। यानि॑। स॒त्या। सम्। दि॒व्येन॑। दी॒दि॒हि॒। रो॒च॒नेन॑। विश्वाः॑। आ। भा॒हि॒। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। चत॑स्रः ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सास्त्वाग्नऽऋतवो वर्धयन्तु सँवत्सराऽऋषयो यानि सत्या । सन्दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वाऽआभाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समाः। त्वा। अग्ने। ऋतवः। वर्द्घयन्तु। संवत्सराः। ऋषयः। यानि। सत्या। सम्। दिव्येन। दीदिहि। रोचनेन। विश्वाः। आ। भाहि। प्रदिश इति प्रऽदिशः। चतस्रः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 1
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) विद्वान् ! अग्रणी नायक ! राजन् ! (त्वा) तुझको (समाः) एक समान मान, पद और ज्ञानवाले विद्वान् पुरुष और (ऋतवः) बलवान् सभासद् गण, (संवत्सराः) अच्छी प्रकार प्रजाओं को बसाकर उनमें स्वयं रमण करने हारे प्रजापालक नरपति लोग और (ऋषयः) वेद- मन्त्रों और सत्य ज्ञानों के गूढ़ तत्वों के अध्यापक तथा अध्येता जन और (यानि सत्या) जितने होने वाले सत्य, यथार्थ विज्ञान और सत्य व्यवहार हैं वे सब (त्वा) तुझको (सं वर्धयन्तु) बढ़ावें, तेरे यश, बल और ऐश्वर्यं की वृद्धि करें । तू (दिव्येन) उत्तम कान्तियुक्त (रोचनेन ) सबको अच्छा लगने वाले तेज से (सं दीदिहि ) सूर्य के समान प्रकाशित हो । और सूर्य के समान ही (विश्वा) समस्त ( चतस्रः) चारों दिशा उपदिशाओं सबको (आभाहि ) जगमगा, प्रकाशित कर । सूर्यपक्ष में- ( समाः) वर्ष, (ऋतवः) वसन्तादि, (संवत्सराः) प्रभव आदि सब सूर्य की महिमा को बढ़ाते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [अ० २७ ] प्रजापतिर्ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ [ १ – ९] अग्निर्ऋषिः । अग्निदेवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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